Santosh kumar koli ' अकेला' 05 May 2024 कविताएँ अन्य मजबूरी से मज़बूती 3637 0 Hindi :: हिंदी
झाड़ी सरदई, मंजरित मंजर। धीरे-धीरे बेर रसीले, पक गए बेख़बर। खाने वाले उस खा़ना पहुंचे, अपनी -अपनी डगर। बेरों से ज्यादा कांटे, है कांटों का डर। रख कांटों की काट, है बेर भी खाना। कांटे तो काटे, हाथ लगे बेर काना। बिन कांटों के बेर, चाहता मनुज सयाना। बेर, कांटे हर बेर, सहना खाना। वे ही कांटे, वे ही बेर, वे ही खाने वाले। जीवन भर बैठे रहते, कांटे बहाना करने वाले। कांटे सहते, नहीं डरते, रस पाने वाले। यहीं रहना, ऐसे ही रहना, जानते जीने वाले।