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नक्सलवादी आंदोलन

virendra kumar dewangan 30 Mar 2023 आलेख दुःखद Terrorisum 87900 0 Hindi :: हिंदी

वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल प्रंात के नक्सलबाड़ी (आदिवासी) गांव में इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। इसके संस्थापक सदस्य थे-चारू मजूमदार व कानू सान्याल। चारू मजूमदार कम्युनिस्ट पार्टी से विद्रोह करके आंदोलनकारी बन गए थे। 
मजूमदार का उद्देश्य था-जमींदारों व सामंतों के अत्याचारों व ज्यादतियों के खिलाफ लोगों को एकजुट करना। इसमें आंदोलनकारियों व संस्थापक सदस्यों को किंचित सफलता भी मिली। आंदोलन से सबसे ज्यादा राहत कृषि मजदूरों और छोटे किसानों को हासिल हुआ।
	नक्सलबाड़ी आंदोलन में किसानों की मुख्य मांग थी-बड़े काश्तकारों को छोटा करके उनकी बेनामी जमीन का समुचित वितरण किया जाए। बंगाल में कम्युनिस्टों की सत्ता होने के फलस्वरूप किसान आंदोलन चरम पर पहुंच गया। इसी दरमियान एक किसान बिगुल ने अपने पक्ष में दीवानी अदालत का आदेश प्राप्त कर लिया, लेकिन जमींदार उसे कब्जा देने के लिए तैयार नहीं हुआ।
	जवाब में किसानों ने कम्युनिस्ट पार्टी के स्थायी नेतृत्व की अगुआई में किसान समितियां और हथियार बंद दस्ते बनाकर जमीनों पर कब्जा करना आरंभ कर दिया। सभी झूठे दस्तावेज जलाए जाने लगे, कर्ज के प्रनोट नष्ट किए जाने लगे। यह अराजकता थी, जो कालांतर में नक्सलवादी आंदोलन का रूप ले लिया।
	नक्सलबाड़ी आंदोलन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे बड़े नेता माओत्से तुंग से बुरी तरह प्रभावित था। लिहाजा, चीनी माडल को इस देश में लागू करने का प्रयास किया जाने लगा। जिसे माओवादी आंदोलन कहा गया। 
चीन इस आंदोलन का कट्टर समर्थक बन गया। लेकिन, वह भूल गया कि चीन और भारत की परिस्थितियों में जमीन-आसमान का अंतर है। ऊपर से चीन के जमींदार बड़े पैमाने पर विभाजित थे। वहां संसदीय लोकतंत्र का नितांत अभाव था 
	नक्सलबाड़ी आंदोलन प्रारंभ से ही उग्र था, किंतु उनके केंद्रीय नेतृत्व के देहावसान के बाद हिंसक हो उठा। आंदोलन जब बंगाल से बाहर निकलकर बिहार, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के बीहड़ों मंे विस्तारित होने लगा, तब इसमें विधटनकारी, मतलबी व अराजक तत्व शामिल होने लगे। 
अब तो यह संगठन भारत का लिट्टे कहलाता है। वह लिट्टे, जो छापामार रणनीति के तहत बरसोंबरस श्रीलंका सरकार के लिए परेशानी का सबब बना रहा और यशस्वी प्रधानमंत्री राजीव गांधी के प्राणोत्सर्ग से बेदम हुआ।
	छग के बस्तर संभाग में जहां धनधोर वनों में आदिवासी समुदाय निवासरत है, वहीं संयुक्त मप्र के दौरान कलेक्टर दर निर्धारण के बावजूद व्यापारी अत्यधिक सस्ती कीमत में महुआ, चिरौंजी, साल बीज आदि वनोपज नमक व कपड़े के बदले ले लिया करते थे। 
तब नक्सलियों के दबदबे, धमक व खौफ के बाद यह शोषण थम गया था। मजदूरी भी बराबर मिलने लगी थी। इससे सरकार व वनवासियों पर इनकी धाक जमने लगी थी।
	जिस शोषणमूलक समाज के खातिर इन्होंने बंदूक उठाया था, आज वे उन्हीं गरीब, मजदूर, आदिवासी, किसान का शोषण कर रहे हैं और उनके विकासमान गतिविधियों के लिए रोड़े अटका रहे हैं। 
अब उन्हें सड़क, पूल-पुलिया, स्कूल, अस्पताल, पंचायत भवन नहीं चाहिए; क्योंकि इससे जहां स्थानीय लोगों में जागरूकता का बीजारोपण होता है, वहीं पुलिस-फोर्स उसमें रुका करती है, जो उनके लिए घातक हो सकता है।
नक्सलवादी नेता पूरे एशोइशरत से जीना चाह रहे हैं, किंतु वे मुफलिसों को आगे बढ़ने से रोक रहे हैं। इससे यही प्रतीत होता है कि यह आंदोलन अपने निहितार्थ से पूरी तरह भटक चुका है।
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अनुरोध है कि लेखक के द्वारा वृहद पाकेट नावेल ‘पंचायत’ लिखा जा रहा है, जिसको गूगल क्रोम, प्ले स्टोर के माध्यम से writer.pocketnovel.com पर  ‘‘पंचायत, veerendra kumar dewangan से सर्च कर व पाकेट नावेल के चेप्टरों को प्रतिदिन पढ़कर उपन्यास का आनंद उठाया जा सकता है और लाईक, कमेंट व शेयर किया जा सकता है।

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