Rakshi 15 Feb 2025 कविताएँ समाजिक 10858 0 Hindi :: हिंदी
नारी की व्यथा तुम्हे तो आती नहीं शर्म मुझे तो वक्त लगता है संभलने में तुम्हारे एक बार गरजने में मुझे वक्त लगता है संभलने में हाथ जो उठ जाए इक बार तुम्हारा अरसा लगता है वजूद को सिमटने में तुम्हे तो आती नहीं शर्म मुझे वक्त लगता है संभलने में कमजोर समझ के दे जाते हो गालियां खुद को कहते हो मर्द तुम्हे तो शर्म आती नहीं मुझे वक्त लगता है संभलने में घर तुम्हारा है कह कर जब भी करते हो बेघर मुझे तुम्हे तो आती नहीं शर्म मुझे वक्त लगता है संभलने में अपनी मां को देते हो सम्मान पत्नी का करके अपमान ऐसा जब भी करते हो तुम्हे तो शर्म आती नहीं मुझे वक्त लगता है संभलने में मां के पैरों तले जन्नत है तुम्हारी हो या बच्चों की तुम्हारे इतना तुम समझ जाते तो शर्म मुझे आती नहीं तुमको अपना कहने में रुखसार परवीन