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वन नेशन वन इलेक्शन-राजनीतिक वातावरण

virendra kumar dewangan 06 Sep 2023 आलेख राजनितिक Political & consitutional 11201 0 Hindi :: हिंदी

जैसे प्रकृति परिवर्तन की अनुगामी है, वहां नित-नए परिवर्तन होते रहते हैं, ऋतु-परिवर्तन भी इसमें शामिल है, जिससे हमें बरसात, ठंड और ग्रीष्म ऋतु के दर्शन होते हैं और जीवंतता का अहसास कराते हैं; उसी तरह संवैधानिक और राजनीतिक परिदृश्य में भी आवश्यकता और समयानुसार परिवर्तन होते रहने चाहिए, तभी संवैधानिक लोकतंत्र जीवंत और उपयोगी हो सकता है।

ताजा परिवर्तन की आहट एक देश, एक चुनाव की है, जिस पर रिपोर्ट देने के लिए केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 8 सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया है। इस कमेटी में राजनीति सहित न्यायिक क्षेत्र के विद्वानों को शामिल किया गया है।

गौरतलब यह भी कि चुनाव आयोग व विधि आयोग ने इसकी संस्तुति पहले ही कर रखी है और कहा है कि इसके लिए संविधान के अनुच्छेद-83, अनुच्छेद-85, अनुच्छेद-172, अनुच्छेद-174 और अनुच्छेद-356 में संशोधन करने होंगे।

हालांकि एक देश, एक चुनाव की अवधारणा कोई नई नहीं है। संविधान निर्माण और गणतांत्रिक देश बनने के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए थे। 

लेकिन, उसके बाद अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कर कई राज्यों की सरकारों को गिरा दिए जाने और केंद्र में भी अस्थिर सरकारों के आने-जाने से देश में ऐसी स्थितियां निर्मित होने लगी, जो अलग-अलग समय में चुनाव कराने की विवशता उत्तपन्न कर दी। 

इससे सालोंसाल देश में कहीं-न-कहीं चुनाव होते रहते हैं। बार-बार होनेवाले इन चुनावांे से जहां सरकारी धन का अपव्यय होता है, वहीं चुनाओं में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल और आदर्श आचार संहिता लागू होने से विकास परियोजनाएं ठप हो जाती हैं। यहां तक कि बड़े पैमाने पर सुरक्षाकर्मी भी झोंक दिए जाते हैं।

विदित हो कि लोकसभा चुनाव का व्यय जहां भारत सरकार वहन करती है, वहीं राज्य विधानसभाओं का खर्च संबंधित राज्य सरकारें वहन करती हैं। जबकि एक साथ चुनाव कराने से केंद्र-राज्य आधा-आधा वहन कर सकती हैं। पार्टियों व प्रत्याशियों का खर्च भी भारी मात्रा में घट सकता है।

यही नहीं, देश का राजनीतिक वातावरण तू-तू मैं-मैं वाला हो जाता है, जो देश के सौहार्द्रपूर्ण फिजा में जहर घोलने का काम ही करता है।

इसी से मुक्ति के लिए प्रधानमंत्री का आव्हान है कि एक देश, एक चुनाव वक्त की जरूरत है। ऐसा प्रयोग दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन और इंग्लैंड आदि देशों में सफलतापूर्वक किया गया है। 

हालांकि ये देश क्षेत्रफल व जनसंख्या में भारत से कहीं अधिक छोटे हैं, लेकिन जब भारत का अधिसंख्य जनमानस तैयार है, तो इसे अपनाने में किसी को कोई गुरेज नहीं करना चाहिए।

यद्यपि इसमें कई संवैधानिक अड़चनें हैं, इसके लिए आधे से अधिक राज्यों के विधानसभाओं की लिखित सहमति के साथ-साथ लोकसभा व राज्यसभा से प्रस्ताव पारित कराना होगा।

रहा सवाल विरोधी दलों की असहमति का, तो वो हर उस बात का विरोध करना अपना परमधरम मानते हैं, जो देशहित, लोकहित व समाजहित में हों। कारण कि इसमें उनका गरूर आढ़े आता है कि उनसे सहमति नहीं ली गई है। 

इसके पूर्व भी उन्होंने कई ऐसे-ऐसे संशोधनों का विरोध किया है, जो देशहितैषी साबित हुए हैं। जैसे, विमुद्रीकरण, जीएसटी, तीन तलाक, अनुच्छेद 370 की समाप्ति आदि। ऐसी प्रवृति नकारात्मक राजनीति की पराकाष्ठा है, जिसका खामियाजा अंततः विपक्ष को चुनावी हार के रूप में चुकानी पढ़ती रहती है।

विधि आयोग ने गत वर्ष इस मसले पर तमात दलों के साथ बैठक की थी, जिसमें अन्नाद्रमुक, शिअद, सपा और टीआरएस ने समर्थन किया था। जबकि तृणमूल, आप, द्रमुक, तेदपा, सीपीआइ, सीपीएम, जदएस, गोफापा और फारवर्ड ब्लाक ने इसका विरोध किया था। पहले कतिपय समर्थक पार्टियां भी अब अंधविरोध के चलते इसका विरोध करने पर तुली हुई हैं।

बहरहाल, मसौदे में यह भी प्रस्ताव है कि लोकसभा व विधानसभाओं के खाली होनेवाले पदों पर एक साल में नियत तिथि में चुनाव करवाएं जाएं। 

त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा की स्थिति में सरकार चलाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई जाए और निर्वाचित सदस्यों में-से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चयन किया जाए, जो पांच साल के लिए शासन चलाने का दायित्व निभाए। 

अविश्वास प्रस्ताव के साथ-साथ विश्वास प्रस्ताव भी जोड़ा जाए और सदन जिस दल पर विश्वास करे, उसे सत्ता सौंप दिया जाए।
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