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नमस्ते दुनिया-नमस्ते देवभाषा संस्कृत का शब्द है

virendra kumar dewangan 15 Jul 2023 आलेख देश-प्रेम Partiot 7107 0 Hindi :: हिंदी

‘नमस्ते’ देवभाषा संस्कृत का शब्द है। ‘नमस्ते’ में नमः$ते की संधि हुई है। यह शब्द विसर्ग संधि का उदाहरण है। विसर्ग संधियुक्त इसी तरह के अन्य शब्द हैं-निस्संदेह, निस्तेज, निस्सहाय, दुस्सह, दुस्संधि इत्यादि। नमस्ते में ‘नमः’ का आशय झुकना और आदर प्रकट करना है, तो ‘ते’ का तात्पर्य-आपके लिए है।
 
अर्थात ‘नमस्ते’ का तात्पर्य हुआ- आपके लिए मैं आदर प्रकट करता हूं या आपको मैं आदर सहित झुककर प्रणाम करता हूं। नमस्कार व नमस्कारम् भी इसी का रूप है। ‘नमन’ भी इसी भाव को अभिव्यक्त करता है।

प्रणाम करना भी नमस्ते का ही रूप है। पहले स्कूलों में विद्यार्थी अपने गुरु को ‘प्रणाम गुरुजी’ कहा करते थे। आजादी के आसपास और 1970 के दशक तक इसका चलन खूब था।
 
सरस्वती शिशु मंदिरों में आज भी विद्यार्थी अपने आचार्य को ‘प्रणाम आचार्यजी’ कहते हैं। गुरुकूलों में इसका चलन था-ही-था; घर आए अतिथियों को भी ‘प्रणाम’ करने का संस्कार प्रचलित था।
 
वैदिक, रामायण व महाभारतकाल में दोनों हाथ जोड़कर ‘प्रणाम’ करने की परंपरा रही है, जो यही साबित करती है कि ‘नमस्ते’ शब्द भारतीय संस्कृति में प्राचीनकालीन है। इसे सब युगों व कालों मंे बहुतायत से प्रयोग किया जाता रहा है।
 
यकीन न हो, तो रामायण व महाभारत सिरीयल देख लिजिए। इन सिरीयलों में कहीं कोई-किसी से हाथ मिलाता हुआ दिखाई नहीं देगा। सब एक-दूसरे को आयु-वर्ग-पद के अनुसार हाथ जोड़े प्रणाम करते ही नजर आएंगे या स्नेहाशीष देते हुए दिख पड़ेंगे।
 
कुरुक्षेत्र के रण में जब युद्धारंभ होनेवाला था, तब ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, आचार्यवर द्रोणाचार्य, कुलगुरु कृपाचार्य और मामा शल्य को प्रणाम करने जाते हैं, तो उन्होंने आशीर्वचन के रूप में युधिष्ठिर को ‘विजयश्री’ का आशीर्वाद दिया था। 

इसे देखकर दुर्बुद्धि दुर्योधन पितामह से प्रश्न करता है कि आपलोग कुरु सेना की ओर से लड़ रहे हैं या शत्रु सेना की ओर से; जो परम शत्रु को विजयश्री का आशीर्वाद दे रहे हैं। 

इस पर पितामह का जवाब था,‘‘वत्स, तुम भी युधिष्ठिर को बड़ा भाई मानकर उसे प्रणाम करते, तो वह भी तुम्हें ‘विजयी भवः’ का आशीर्वचन देते। प्रणाम का परिणाम, आशीर्वाद ही होता है।’’

राखीगढ़ी की खुदाई में सैंधव सभ्यता के जो अवशेष मिले हैं, उसके मूर्तिशिल्प में नमस्कार करती मानव मुद्राएं हैं, जो प्रमाणित करती हैं कि आर्यावर्त में आदिकाल से ‘नमस्ते’ का चलन रहा है।

कुटुम्ब में भी जब कुटुम्बीजन आपस में मिलते हैं, तो छोटे बड़े को प्रणाम या पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं। बराबरवाले को नमस्ते करते हैं। समधी या समधन जब आपस में मिलते हैं, तब जय जोहार या जय सियाराम कहकर हाथ जोड़ते हैं।
 
यही नहीं, भाईवधू अपने जेठ को प्रणाम करने के लिए धरती को हाथ जोड़कर प्रणाम करती है। यहां तक कि आदिवासी व वनवासी समुदायों में भी परस्पर हाथ जोड़कर अभिवादन करने की प्रथा सदियों से प्रचलित है। यही प्रणाम पंजाब में-‘‘सत श्री अकाल’’ और दक्षिण भारत में ‘‘वड़क्कम’’ बन जाता है। 

छत्तीसगढ़ में तो एक कदम आगे जाते हुए मामा अपने से कमउम्र के भांजा का पैर छूने की परंपरा निभाता है। यह उज्जवल सीख हमें भारतीय संस्कृति से वहां से प्राप्त होती है, जहां कहा जाता है कि मामा कौशल्या का मयका छग राज्य था और कौशल्यापुत्र श्रीराम छत्तीसगढ़ के भांजे थे।
 
फारसी-उर्दू शब्द सलाम करना भी इसी नमस्ते की ओर इशारा करता है। इसी से ‘सलामी लेना’ बना है। यह सलामी राष्ट्रध्वज का भी हो सकता है और अपने ईष्टदेव का भी। 15 अगस्त व 26 जनवरी को प्रातः झंडावंदन के बाद, जो ‘ध्वज सलाम’ किया जाता है, वह भी सलामी का परिष्कृत रूप है।
 
इसी से जुड़ा हुआ है, तोपों की सलामी या बंदूक की सलामी, जो शहीदों को उनकी शहादत पर दिया जाता है। ये भी उसी नमस्ते, प्रणाम या सलाम करने का सम्मानजनक व आभिजात्य रूप है।

‘नमस्ते’ के संबंध में वैज्ञानिकों की धारणा है कि जब उंगलियों के शीर्ष एक-दूसरे के संपर्क में आकर परस्पर जुड़ते हैं, तब उनमें घर्षण होता है, जो एक्यूप्रेशर के कारण इसके दबाव का सीधा असर आंख, कान व दिमाग पर पड़ता है। इससे स्मरणशक्ति के बढ़ने के साथ-साथ व्यक्तियों को लंबे समय तक याद रखा जा सकता है।

आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से नमस्ते की जगह ‘हाथ मिलाना’ और ‘हाय-हलो करना’ ने ले लिया है, जो भारतीय संस्कृति के वाहक ‘नमस्ते’ का विकृत प्रयोग है।
 
खासकर अभिनेताओं, युवाओं, आफिसरों, उद्योगपतियों और बड़े व्यावसायियों के द्वारा इसका प्रयोग धड़ल्ले से किया जाता है।
 
कोरोना संकट ने भारतीयों को भी चेता दिया है कि हाथ मिलाओगे, तो कोरोना के वाहक बनोगे और मारे जाओगे। इसलिए, भलाई इसी है कि अपनी संस्कृति की ओर लौटो।
 
इसी कारण से कहा जाता है कि ‘नमस्ते’ वैज्ञानिक प्रयोग है, तो ‘शेकहैंड’ अवैज्ञानिक। नमस्ते अदृश्य कोरोना वायरस का कुुचालक है, तो शेकहैंड सुचालक।

कोरोना वायरस के कहर के चलते आज दुनिया ‘नमस्ते’ को वायरस पू्रफ तरीका मान रही है, जो भारत की देन है और भारतीयता का वाहक। यह अभिवादन का आभिजात्य सलीका है।
 
इसका कारण यह भी कि कोरोनावायरस को फैलने से रोकने के लिए दुनियाभर के चिकित्सकों ने ‘परस्पर हाथ न मिलाने’ की सलाह दी है। एक-दूसरे से 1 मीटर या दो गज से अधिक दूरी पर रहने का सुझाव दिया है।

दुनिया में अभिवादन के और भी तरीके हैं। जैसे जापानी लोगों में ओजिगी की परिपाटी है। वे एक-दूजे का अभिवादन करने के लिए आगे की ओर झुकते हैं। दक्षिण कोरियाई भी एक-दूसरे की ओर झुकते हैं।
 
थाईलैंड के लोग हाथ जोड़कर परस्पर अभिवादन करते हैं। तिब्बती अभिवादन के समय अपनी जीभ बाहर निकालते हैं। एस्किमो नाक को परस्पर रगड़ते हैं। ओमान, कतर व यमन के वासी प्रणाम करते वक्त अपनी नाक को हाथ से स्पर्श करते हैं। अरब के लोग परस्पर गले लगते हैं। 

यूरोपियन गाल को चुमते हैं। हालीवुड व बालीवुड में भी परस्पर गले लगने की परिपाटी विकृत रूप से चल पड़ी हैं। वे एक-दूसरे का चुंबन लेते हैं। लेकिन नमस्ते शिष्टाचार का ऐसा तरीका है, जिसमें किसी के संपर्क में आए बिना दूर से सम्मानित किया जा सकता है।

हालांकि ‘नमस्ते’ को कुछ लोग रूखे लोकव्यवहार की संज्ञा देते हैं, लेकिन हाथ जोड़कर किया गया सात्विक अभिवादन रूखा कैसे हो सकता है? बल्कि यह परस्पर प्रेम, आदर, सदभाव, समरसता व सांत्वना का भाव प्रदर्शित करता है, जो सब भावों में श्रेष्ठ माना जाता है। 

यद्यपि दुनिया को ‘नमस्ते’ को अपनाने में समय लगेगा, तथापि ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ कहावत को चरितार्थ करता हुआ यही ‘नमस्ते’ बाद में रुचिकर लगने लगेगा। 

अभी दुनिया के अधिकतर रहवासियों को इस प्रथा की महत्ता का ज्ञान नहीं है। शुरू-शुरू में उन्हें यह अटपटा व बेजान भले लग रहा है या लगेगा; लेकिन जब इसका व्यवहार बढ़ता चला जाएगा, तब यही ‘नमस्ते’ सबका जीवनाधार बन जाएगा।

यही कारण है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रों, इजराइल के पूर्व प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू और ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स ने नमस्ते को अपना लिया है और अपने देशवासियों को अपनाने की सलाह दे डाली है।
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