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मुफ्त की रेवड़ी-राज्यों को कंगाल बनाए हुए हैं

virendra kumar dewangan 28 Jul 2023 आलेख राजनितिक Free bij 6361 0 Hindi :: हिंदी

दो संप्रभु मुल्कों के मुफ्त की रेवड़ी के हालतों पर जरा गौर फरमाइए। कभी अमीर मुल्क कहलाने वाले वेनेजुएला के हुक्मरान फखत वोट पाने के लिए मुफ्ती योजनाएं में धन बांट-बांट कर उसे कंगाल बना चुके हैं।

पड़ोसी मुल्क श्रीलंका की अर्थव्यवस्था भी मुफ्त की रेवड़ी के मकड़जाल में फंसकर तबाह हो चुकी है। वहां का अर्थतंत्र चौपट और दीवालिया हो गया है। नतीजतन, जनविद्रोह से घबरा कर राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे देश छोड़कर भाग चुके थे।

श्रीलंका संकट के मूल में विदेशों से खासकर चीन से लिया गया तकरीबन 6 लाख करोड़ का कर्ज है। इस कर्ज से मतदाता का वोट कबाड़ने व फिर-फिर सत्ता में लौटने के मकसद से मुफ्तखोरी की योजनाएं चलाई गई।

इससे श्रीलंका के आय-व्यय और आयात-निर्यात का संतुलन गड़बड़ा गया। विदेशी मुद्रा भंडार में भारी कमी हो गई और जरूरी जिन्सों के दाम आसमान छूने लगे।

इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में एक कप चाय की कीमत 100 रुपया पहुंच गया था। दवाइयां व खाने-पीने की चीजें बाजार से गायब हो गई थी। नागरिकों को पेट्रोल-डीजल के लिए कई-कई दिनों तक लाइन में लगना पड़ रहा था और राजधानी कोलंबों तक में तेरह-तेरह घंटे पावरकट किया जा रहा था।

इसी राह पर पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल व मालदीव भी हैं। देश पर भी करीब 42.5 लाख करोड़ रुपये का विदेशी कर्ज है, जिससे हर भारतीय 30 हजार से अधिक रुपये के कर्ज तले दबा हुआ है।

राज्यों के हालात

भारत के तीन राज्य ऐसे हैं, जो श्रीलंका से अधिक या उसके समतुल्य कर्जदार हैं। इसमें तमिलनाडु सबसे ऊपर है, जो 6.6 लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूबा हुआ है। उप्र व महाराष्ट्र राज्य पर श्रीलंका के बराबर करीब-करीब 6 लाख करोड़ रुपये से अधिक की देनदारी है।

यही नहीं, पश्चिम बंगाल पर 5.5 लाख करोड़, राजस्थान पर 4.7 लाख करोड़, पंजाब पर 3 लाख करोड़ रुपया का ऋण है।

इसी तरह मप्र, कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, गुजरात, बिहार, छग सहित तमाम राज्य कर्ज तले कराह रहे हैं।
 
इसमें भी पंजाब का ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रॉडक्ट (जीएसडीपी) का अनुपात सब राज्यों से ज्यादा 53.3 फीसद है। इसके बाद राजस्थान 39.8, पश्चिम बंगाल 38.8, केरल 38.3 और आंध्रप्रदेश 37.6 प्रतिशत है।

गनीमत है कि हमारा देश संघ-राज्य है, इसीलिए ये प्रदेश दीवालिया होने से बचे हुए हैं, वरना इनकी हालात भी कब के वेनेजुएला व श्रीलंका जैसी हो गई होती।

कैसी-कैसी रेवड़ियां

इसके बावजूद देश में मुफ्ती रेवड़ी की महामारी सब पार्टियों की सरकारों को लगी हुई है, जो वोटरों को लुभाने के लिए मुफ्तखोरी को प्रश्रय देते हैं और एक-दूसरे से होड़ करते हुए लुभावनी योजनाएं चलाते हैं और नाम देते हैं लोककल्याणकारी योजनाएं।


फोकट का चंदन बांटने का यह महारोग योजनाओं में अनुदान, स्वेच्छानुदान के नाम पर नकदी हस्तांतरण, गैस सिलेंडर और मुफ्त की लोक-लुभावनी यानी फ्रीबीज योजनाओं में सर्वाधिक है, जिससे शासकीय खजाने रीते होने के कगार पर पहुंच चुके हैं।

ये वे रेवड़ियां हैं, जो राज्यों को कंगाल बनाए हुए हैं। लैपटॉप, मोबाइल, टीवी, स्कूटी, साइकिल, तीन सौ-चार सौ यूनिट बिजली फ्री, पानी फ्री, हर साल करोड़ों रुपया कर्जमाफी वगैरा-वगैरा।

यही नहीं, दो-तीन रुपया किलो गेहूं-चावल, चार-छह रुपया किलो दाल व पांच रुपया किलो चना, नमक फ्री, यातायात फ्री, तीर्थयात्रा फ्री और नकदी राशि फ्री, इसीलिए दी जाती है; ताकि लोककल्याण के नाम पर फोकट का चंदन बांटा जा सके और वोटों की फसल काटी जा सके।

राज्य सरकारों के द्वारा खैराती योजनाओं में जनता की गाढ़ी कमाई व टैक्सपेयर का पैसा दानवीर कर्ण की नाई बेरहमी से यूं लुटा दिया जाता है, गोया वोटरों ने इन्हें खजाना लुटाने के लिए सत्ता पर बिठा दिया हो।

जबकि अतिरिक्त राजस्व जुटाने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यही कारण है कि केंद्र-राज्यों को मिलाकर जीडीपी के अनुपात में कर राजस्व 18 फीसद हो गया है, तो व्यय अनुपात 29 फीसद।

हालांकि कुछ योजनाएं जैसे कारोना का मुफ्त टीकाकरण, कोरोनाकाल में गरीबों को मुफ्त राशन, वृद्धों, विधवाओं व दिव्यांगों को पेंशन, समग्र शिक्षा व स्वास्थ्यगत खर्च पर ऊंगली नहीं उठाया जा सकता, लेकिन इसके इतर लोक-लुभावनवादी योजनाओं पर किया जानेवाला खर्च आखिरकार लोगों को अलाल बनाकर मुफ्तखोरी का आदी बना रहा है, जो राष्ट्र के समग्र विकास में बाधक बना हुआ है।

विशेषज्ञों की चेतावनियां

इसी के मद्देनजर 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह ने चेतावनी दिया है, ‘‘राज्यों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्तखोरी का चलन बंद नहीं किया, तो देश को आर्थिक मोर्चे पर दुश्वारियों का सामना करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति राजकोषीय आपदा को आमंत्रण दे सकता है।’’

कर्जमाफी पर रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने सरकार को एक समय चेताया था,‘‘कर्जमाफी से उन लोगों की कर्ज अदायगी की भावना आहत होती है, जो ईमानदारी से कर्ज का चुकारा करना चाहते हैं।’’

ऐसा ही आगाह कतिपय वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रधानमंत्री को किया है कि कर्जखोरी की प्रवृति गर नहीं थमी, तो देश गंभीर आर्थिक संकट में फंस सकता है।

इतना ही नहीं, भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने इस मामले में शीर्ष अदालत में याचिका लगाई थी कि क्या चुनाव आयोग ऐसी नियमावली बना सकता है, जो राजनीतिक दलों को चुनावी घोषणापत्र में किए जानेवाले वादों को लेकर अनुशासित कर सके।

इस बाबत चुनाव आयोग व केंद्र सरकार से सुप्रीमकोर्ट ने जवाब तलब किया है।

चुनाव आयोग ने शिखर अदालत को जवाब दिया है, ‘‘किसी कानूनी अधिकार के अभाव में वह इस मामले में कुछ ज्यादा करने की दशा में नहीं है। इसका निर्णय तो मतदाताओं को ही करना होगा। सरकार इससे निपटने के लिए कानून ला सकती है।’’

आशय यह कि चुनाव आयोग ने हाथ खड़े कर दिए हैं और गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दिया है।
 
उधर केंद्र सरकार है कि इस पर कठोर कानून लाने से इसीलिए कतरा रही है; क्योंकि मुफ्त की रेवड़ियां बांटने में एनडीए या बीजेपी शासित राज्य भी किसी से कम नहीं हैं। वे भी बहती गंगा में हाथ घो लेना चाहते हैं।
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लेख का शेष हिस्सा ‘मुफ्त की रेवड़ी-2’ में पढ़िए।

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