virendra kumar dewangan 23 Jul 2023 आलेख देश-प्रेम Sports 6281 0 Hindi :: हिंदी
3 बार के ओलिंपिक चैपियन और पूर्व हाकी कप्तान बलबीर सिंह सीनियर का 96 साल की आयु में फोर्टिस हास्पिटल मोहाली, लांबा में 25 मई 2020 को देहावसान हो गया। उनका जन्म 19 अक्टूबर 1924 को हरिपुर खालसा-पंजाब में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा देव समाज, हाईस्कूल-मोगा में हुई थी। उन्होंने आगे की पढ़ाई डीएम कालेज और खालसा कालेज-अमृतसर में किया था। उनका पूरा नाम बलबीर सिंह दोसांझ था। भविष्य में बलबीर सिंह के नाम से भ्रम न हो, इसलिए उन्हें बलबीर सिंह सीनियर कहा जाने लगा था। उनके पिता का नाम दलीप सिंह दोसांझ था। उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। दलीप सिंह ने बलबीर सिंह को उसके 7वें जन्मदिन पर हॉकी का स्टिक उपहारस्वरूप दिया था, जिसे लेकर वे काफी प्रसन्नचित्त थे। वे अक्सर अपने घर के पिछवाड़े के खेल मैदान में हॉकी की प्रेक्टिस किया करते थे। यही उनका हॉकी के प्रति शुरूआती रूझान था। उन्होंने हॉकी लाहौर के सिक्ख नेशनल कालेज में अपनी कालेज टीम के लिए पहली मर्तबा खेला। इसके पश्चात उन्होंने हरबेल के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण शुरू किया। इससे उनका खेल-कौशल निरंतर सुधरने लगा। वे ड्रिबलिंग के महारथी व मैदानी गोलंदाजी के रथी बन गए। 1942 में उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया। उन्होंने लगातार तीन साल 1943, 1944 व 1945 में अखिल भारतीय अंतर विश्वविद्यालय खिताब की कप्तानी भी की। बलबीर सिंह जब 12 साल के थे, तब गोलकीपर थे। तभी बलबीर सिंह ने रीयल न्यूज में 1936 के ओलिंपिक टीम इंडिया के खिलाड़ियों को दनादन गोल दागते देखा था-ध्यानचंद 3, दारा 2, रूपसिंह 1, तमसिंह 1, जफर 1-इससे उसके किशोर मन में भारत के वास्ते गोल करने की तीव्र इच्छा जागृत होने लगी थी। 1948 के ओलिंपिक में उन्होंने अंर्जेंटीना के खिलाफ पहला ओलिंपिक मैच खेला और 6 शानदार गोल किया। तब वे महज 23 साल के थे। यह विश्वरिकार्ड है। उन्होंने लंदन ओलिंपिक के फायनल में अंग्रेजों के खिलाफ उनके ही घर में 2 दमदार गोल दागा और आजादी का असली जश्न अपनी अंदाज में मनाया। यही कारण है कि उन्हें 1952 व 1956 के ओलिंपिक में भारतीय दल का ध्वजवाहक चुना गया। वे 1952 हेलसिंकी ओलिंपिक के फायनल में नीदरलैंड के खिलाफ 5 गोल दागे थे। यह भी एक विश्व-रिकार्ड है। इस ओलिंपिक रिकार्ड को अभी तक किसी हॉकी खिलाड़ी ने घ्वस्त नहीं किया है। वे मेलबर्न ओलिंपिक-1956 में पाक के खिलाफ बिना गोल खाए गोल्ड मैडल दिलानेवाले महानतम कप्तान बन गए थे। यह मैच भारत ने पाक से 1-0 से जीती थी। इसी ओलिंपिक के पहले मैच में भारत ने अफगानिस्तान को 14-0 से रौंद दिया था। इस ओलिंपिक में भारत ने 5 मैचों में 38 गोल दागे थे। इसी मैच के पूर्व उनकी दाहिनी अंगुली में फ्रेक्चर हो गया था, लेकिन वे इस बात को छुपाकर और पेनकीलर का इंजेक्शन लेकर मैदान में उतरे थे। इसका जिक्र उन्होंने अपनी आटोबायोग्राफी ‘द गोल्डन हैट्रिक’ में किया है। भारतीय पुरुष हॉकी का वह एक स्वर्णिम दौर था, जिसमें उसने 1928 से 1956 के बीच लगातार होेनेवाले छह ओलिंपिक में स्वर्णपदक हासिल किया था। इन छह ओलिंपिक-विजय अभियानों में तीन के स्ट्राइकर बलबीर सिंह सीनियर ही थे। उनका खुद का ओलिंपिक रिकार्ड 8 मैच 22 गोल रहा। बलबीर सिंह 1975 में उस वर्ल्ड चैंपियन टीम के मैनेजर थे, जिसमें भारत ने अजीतपाल सिंह की कप्तानी में गोल्ड मैडल जीतकर भारत का मस्तक ऊंचा कर दिया था। देश को गौरान्वित करनेवाला वह क्षण अदभुत् था, जब देश की हाकी टीम ने यशस्वी कप्तान अजीतपाल सिंह के नेतृत्व में यह कमाल कर दिखाया था। बलबीर सिंह सीनियर 2012 लंदन ओलिंपिक के दौरान विभिन्न खेलों के लिए चुने गए 16 महान खिलाड़ियों में शुमार थे। उन्हें जीवित किंवदंती और हॉकी का ‘भीष्म पितामह’ कहा जाता है। 1957 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया था, जो किसी खिलाड़ी को मिलनेवाला पहला सम्मान था। उन्हें हाल ही में इंडियन स्पोर्टस आनर्स में लाइफटाइम अचीवमेंट के लिए ‘कीप वाकिंग आनर’ से सम्मानित किया गया था। उन्हें नई दिल्ली में आयोजित एशियाई खेल 1982 मंे ज्वाला प्रज्ज्वलित करने का गौरव हासिल हुआ। 1915 में उन्हें मेजर ध्यानचंद लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। अधिक गोल करने के लिए उनका रिकार्ड ग्रीनिज बुक आफ वर्ल्ड में आज भी दर्ज है। ‘‘बलबीर की कोचिंग स्टाइल दूसरों से भिन्न थी। वे आक्रामकता को प्राथमिकता देते थे। वे हमेशा कहते थे कि कोई मैच गोल करके ही जीता जा सकता है, न कि डिफेंस से। इसलिए उनका सूत्र वाक्य था-गोल करो; और गोल करो।’’ पूर्व हॉकी खिलाड़ी सैयद जलालुद्दीन का अभिमत बलबीर सिंह सीनियर के प्रति यही था। उड़नसिक्ख मिल्खा सिंह ने भी उनके बारंे में कहा है, ‘‘हॉकी में ध्यानचंद के बाद बलबीर सिंह बतौर लीजेंड खिलाड़ी के तौर पर सदैव याद किए जाएंगे।’’ वे आखिरी लम्हें तक हॉकी के लिए समर्पित थे। उनका जीवन हॉकी के लिए था। उनके रोम-रोम में हॉकी समाया हुआ था। उनका हॉकी के प्रति समर्पण और स्नेह अद्धितीय था। वे उस हॉकी स्टीक को अपने बिस्तर में सजाकर रखे हुए थे, जिससे उन्होंने उस इंग्लैंड के अहंकार को चकनाचूर कर दिया था, जिसके राज में सूर्यास्त नहीं होता था। उनका घर-मंदिर हॉकी की सामग्री से सज्जित था। सच पूछो, तो वे हॉकी के चलते-फिरते इन्साइक्लोपीडिया थे। --00-- अनुरोध है कि पढ़ने के उपरांत रचना को लाइक, कमेंट व शेयर करना मत भूलिए।