Rupesh Singh Lostom 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक पिघल रहा 6293 0 Hindi :: हिंदी
थोड़ा थोडा रोज़ जिंदगी पिघल रहा जैसे साम रोज़ सूरज ढल रहा बून्द बून्द पानी को जैसे आशमा तरस रहा बस उसी तरह जिंदगी जिंदगी से बिछड़ रहा लाख पहरे बिठालो हज़ार बैंकर बनालो एक साम जिंदगी ढलेगि जरूर अकड़ किस बात की ना समझ इंसान एक दिन काल निगल जायेगा समय सामय पे समय का चक्र जब चलेगा तुम्हे बचाने बाला भी नहीं बच पायेगा जाग जा जागता बहरूपी इंसान मन की आँखें खोल और विनाश ध्वनि सुन क्योकि जिंदगी थोड़ा थोड़ा पिघल रहा