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प्रेरक लघुक था जीजी का घर प्रस्तुतकर्ता-सपनों का सौदागर करण सिंह

Karan Singh 05 Sep 2023 कहानियाँ समाजिक जीजी का घर/भक्ति/भक्त रविदास/सूरदास/*#प्रेरक लघु_कथा* *#जीजी_का_घर* 👌प्रस्तुतकर्ता-सपनों का सौदागर.....करण सिंह👍/सपनों का सौदागर/करण सिंह/सपनों का सौदागर... करण सिंह/रामायण/महाभारत/जय श्री राम/महादेव/समाज/बुढ़िया की सुई/भक्त नामदेव/गूगल बाबा/बच्चों की कहानियां/ 6435 0 Hindi :: हिंदी

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अरे सुनती हो!
तुम कह रही थीं ना... सुशांत को कोई काम दिला दो ...उसे काम की जरूरत है।
अपने यहां बुला लो, दुकान पर कोई नहीं है मुझे सहारा लगाने के लिए।
आ जायेगा तो मेरा हाथ बंट जाएगा।
सुशीला खुशी से फूली न समायी, पति का प्रस्ताव सुनकर।
उसका दिल बल्लियों उछलने लगा ये सोच सोचकर कि अब उसका प्यारा भाई उसके साथ ही रहेगा।
कोई तो होगा जिससे वो अपने मन की बात कर सकेगी। पास रहेगा तो भाई का ध्यान रख पाएगी। 
मन ही मन में सोच रही थी , "खिला पिला कर मोटा तगड़ा कर दूंगी अपने भाई को!"
तीसरे ही दिन सुशांत अपनी बहन सुशीला की ससुराल में था।

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बहन ने बड़े लाड़ चाव से उसका स्वागत किया। जीजाजी ने आत्मीयता से उसे अपने पास सुलाया। 
सुशीला के पति नारायन ने कहा, " तुम्हें दुकान में मेरा हाथ बंटाना है, तुम्हें कोई समस्या तो नहीं है ना? ऐसा तो नहीं लगेगा कि तुम मेरी नौकरी करोगे!"
कैसी बात कर रहे हैं जीजाजी! 
"पिताजी और जीजी के बाद आप ही को तो देखा है अपने बड़े के रूप में, 
पिताजी ने कहा है, घर के दामाद का पद बहुत ऊंचा होता है। दामाद की बातों को कभी दिल से नहीं लगाया जाता। आप विश्वास रखिए, मैं आपको निराश नहीं करूंगा।" बड़ी सरलता से सुशांत ने एक सांस में सब कह दिया।
अपने भाई का इतना समझदारी भरा उत्तर सुनकर सुशीला गदगद हो उठी।
नारायन ने भी छोटे से साले के सिर पर अपने आशीर्वाद का हाथ रख दिया।
सुशीला खाना बनाते बनाते अपने पिछले समय को सोचने लगी। 
कितनी छोटी सी उम्र में उसकी मां चल बसी थी। भईया बस छह महीने का था उस समय। मां का दूध भी ठीक से नहीं मिला उसे। पिताजी ने रंभा, जो उनकी गाय थी , उसका दूध पिला पिला कर बड़ा किया उसे।
जिन बच्चों की मां बचपन में ही गुजर जाती है उसके बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं और  पति समय से पहले बूढ़े।

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जान देती थी सुशीला अपने भाई के लिए। बिन मां की बच्ची जानकर मौहल्ले पड़ोस का कोई भी व्यक्ति उसे कुछ भी खाने को देता, तो भाई के लिए जरूर लाती। 
छोटे भाई के साथ अपनी हर खुशी और गम बांटती सुशीला।
यूं तो पिताजी भी कोई कमी न छोड़ते थे उनके लालन पालन में लेकिन भूले से कोई कमी रह भी जाती तो सुशीला उसे पूरा करती सुशांत के लिए।
पूरे तेरह साल की हो गई थी वो। पिता ने उसकी शादी तेईस साल के विधुर से की। दान दहेज में देने को कुछ ना हो तो समझौता करना ही पड़ता है।
सुशीला ससुराल चली तो गई लेकिन आत्मा मायके में ही छोड़ गई। ससुराल वालों को कोई मौका नहीं देती थी शिकायत का , लेकिन हृदय में भाई का विछोह टीसता ही रहता। 
आज सुशांत पूरे दस साल का हो चुका है। 
कितना समझदार हो गया है। दो साल मेरे बिना कैसे रहा होगा??
अगले दिन से सुशांत ने जीजाजी के साथ दुकान जाना शुरू कर दिया। अपनी उम्र के अनुसार उसने काफी काम संभाल लिया दुकान का। सिर्फ खाने पीने और जरा सी रोकड़ के बदले... कोई अपना ही इतना काम कर सकता था। 
लेकिन नारायन को जल्दी ही ऐसा लगने लगा जैसे वो सुशांत पर थोड़े से काम के बदले बहुत ज्यादा खर्च कर रहा है।

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ए सुशांत! इधर आ
ले ये बोरियां उतरवा गाड़ी से, 
जीजाजी बहुत भारी हैं ये तो!
अबे खा तो तू इससे भी ज्यादा जायेगा!
गाड़ी वाले ने भी कहा, " अरे भाईसाहेब! क्या कर रहे हैं? बच्चा है!"
"अबे ओ! तू अपना मुंह बंद रख, तुझे पता है लेबर कितनी महंगी है?
माल ढुलाई के लिए अलग से नौकर रखूंगा क्या?" नारायन ने गाड़ी वाले को धमका दिया।
सुशांत की ये गलतफहमी कि जीजाजी उसे प्रेम की वजह से अपने पास बुला रहे थे, जल्दी ही दूर हो गई।
घर पहुंचकर सुशांत पीठ दर्द से कराहने लगा। सुशीला ने कमीज हटाकर देखा तो नील पड़े थे।
हैरान परेशान सुशीला ने नारायन से पूछा, " सुनो जी! ये सुशांत को क्या हुआ है पीठ पर? "
"अरे! मुझे क्या पता? पांच पांच किलो की दो चार बोरियां क्या उठा लीं साहेबजादे ने, पीठ अकड़ गई इसकी।" नजरें चुराता नारायन सुशीला से बोला।
सुशीला को भी पता था, दुकान पर कोई भी बोरी बीस किलो से कम नहीं होती।

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"जीजी तुम तो जरा सी बात से परेशान हो जाती हो, अरे ये नील नहीं उन बोरियों का रंग है जो हमारी पीठ पर लग गया है।"अपनी कमीज नीचे करता हुआ सुशांत बोला।
 ये क्रम दिन पर दिन चलता ही रहा।सुशांत की स्तिथि बदतर होती जा रही थी। सुशीला समझ गई कि इस घर में उसके भाई का गुजारा नहीं है।
उसके पति उसके भाई के साथ सही व्यवहार नहीं कर रहे। मरती क्या न करती
एक दिन खुद ही सुशांत से बोली, " भईया तू चला जा यहां से! मुझसे तेरी ये हालत नहीं देखी जाती। तू चाहे कितना भी छुपा ले, लेकिन मैं सब समझती हूं।"
"कैसी बात कर रही है जीजी, अरे... काम ही के लिए तो आया था मैं यहां। मैं चला गया तो जीजाजी अकेले रह जायेंगे। काम का बहुत बोझ आ जायेगा उनके ऊपर।" दुख और ज्यादती सहकर भी सुशांत अपनी जीजी के पास ही पड़े रहना चाहता था।
जब सुशीला से रहा ना गया तो एक दिन उसने सुशांत को अपने घर से जबरदस्ती भेजने का उपाय निकाल ही लिया।
"ये क्या तूने चोरी की है? तू मेरी चूड़ियां ले जाकर बाजार में बेचना चाहता था। क्या कसर छोड़ी थी तेरे जीजा और मैंने जो तूने ऐसा काम किया? सुशीला ने मार मार कर सुशांत के गाल लाल कर दिए।"

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वो जान बूझकर नारायन के सामने ज्यादा अभिनय कर रही थी, जिससे वो भी सुशांत को जाने के लिए कह दे।
सुशांत भारी मन से अपना थैला लेकर , अपनी जीजी की ससुराल से निकल गया।
रास्ते में जब थैले में कुछ खाने के लिए ढूंढा तो जीजी की बनाई रोटियों के साथ एक कागज़ लिखा मिला,
जिसपर लिखा था, " माफ कर देना मेरे भईया, ऐसा करना जरूरी हो गया था"
सुशांत की सुबकियों की आवाज़, रेलगाड़ी की आवाज पर भारी पड़ रही थी।
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शिक्षा:
यह मार्मिक कहानी हमे बहुत कुछ सिखाती है दोस्तों कभी पैसे के अहंकार में हमें अपनो की क़दर नही भूल जानी चाहिए। जिंदगी में कई बार हालात जैसे दिखते हैं वैसे दिखते नही है। अगर हमारे पास कोई आस लेकर आता है तो हमें उसका सम्मान करना चाहिए और खासकर जब कोई बच्चा हमारे पास काम करने आता है तो हमें उसकी उम्र और उसकी मासूमियत को कभी नजरन्दाज नही करना चाहिए। वैसे तो बच्चों से काम कराना क़ानूनन अपराध है लेकिन फिर भी यदि कोई बच्चा अपनी परेशानी और मजबूरी के साथ हमारे पास आता है तो हमें उसे शिक्षा की ओर आकर्षित करने में उसकी मदद करनी चाहिए। इस कहानी से दर्जनों शिक्षा मिलती है फिर भी हमें खासतौर पर बच्चों की कद्र करनी चाहिए क्योंकि बच्चे ही किसी भी देश, समाज, परिवार और दुनिया का भाग्य होते हैं। 

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