अलफ़ाज़-ए-धरा
दिल में इस तरह तिरी याद आई
सूने सहरा में गोया बहार आई
कागज़ पे बयां कैसे करूँ ग़म-ए-हिज्र
मिरी कलम में नहीं है इतनी रोशनई
— त्रिशिका श्रीवास्तव ‘धरा’
ज़िन्दगी जीने का हुनर
नन्हे पंछीयों से सीखिए
इक नशेमन टूट भी जाए
तो दूजा बना लीजिए
— त्रिशिका श्रीवास्तव ‘धरा’.
कई ऐसे राज़ हैं
जिन पे पर्दा डाल रखा है
तिरा दिया हर ग़म मैंने
सीने में पाल रखा है
— त्रिशिका श्रीवास्तव ‘धरा’
बहुत दिन हो गए
तुम्हारी ख़बर नहीं आई
तुम्हारी लिखी कोई चिठ्ठी
मेरे घर नहीं आई
— त्रिशिका श्रीवास्तव ‘धरा’
ख़ाली पड़े रहे
क़िताब-ए-ज़िन्दगी के पन्ने
कोई नहीं आया
इन पर कहानी लिखने
— त्रिशिका श्रीवास्तव ‘धरा’