Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक उपेक्षित 13403 0 Hindi :: हिंदी
क़दर करो उनकी, जिनको उपेक्षित कहते हैं। बनकर के ख़ामोश जनाज़ा, सब कुछ सहते रहते हैं। वे सब की जानें, उनकी जाने न कोई। जो उनकी जान ले, वो ब्रह्म रूप को सोई। लोहा, स्पर्श से कंचन बने, उनको वह पारस कहते हैं। बनकर के ख़ामोश जनाज़ा, सब कुछ सहते रहते हैं। बिना ताज के राजा हैं, जैसे वृक्ष, नदियां अपार। तप, त्याग, तकदीर की, बनी मूर्ति हैं साकार। उनका निज का कुछ नहीं, वे औरों के हित जीते हैं। बनकर के ख़ामोश जनाज़ा, सब कुछ सहते रहते हैं। त्याग करें, गुमनाम रहें, उनसा कोई नहीं त्यागी। नर रूप में नारायण हैं, समझे लाखों में बड़भागी। सब कुछ हमको अर्पण, खुद फटी ज़िंदगी सीते हैं। बनकर के ख़ामोश जनाज़ा, सब कुछ सहते रहते हैं। संसार सागर में, वे हैं सुंदर मोती। पढ़ने वाला पढ़ सके, हैं मानवता की खुली पोथी। जो पढ़ा अलौकिक हुआ, ऐसा पढ़ने वाले कहते हैं। बनकर के ख़ामोश जनाज़ा, सब कुछ सहते रहते हैं। भव सागर भटके मांझी का, वे ही एक किनारा हैं। मल- मल नहाओ पाप मिटाओ, निर्मल गंगा की धारा हैं। भव सागर से पार गए, जो उनकी धारा में बहते हैं। बनकर के ख़ामोश जनाज़ा, सब कुछ सहते रहते हैं। क़दर करो उनकी, जिनको उपेक्षित कहते हैं। बनकर के ख़ामोश जनाज़ा, सब कुछ सहते रहते हैं।