Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक बलि का बकरा 20336 0 Hindi :: हिंदी
एक सरल करील, नई कोंपल नई शान। चढ़ी जवानी गदरा रहा, चंचरीक करे रसपान। मंडराने, गहराने से, मन बहुत ललचाया। मेरी ज़रूरत सबको है, मिथ्या विचार मन में आया। एक पौधा नीम का, करीर छांव उग आया। बेबस, बेदम, बेगाना, पनाह करीर की पाया। रक्षित, अक्षत करीर से, नीम हो गया बड़ा। बुरी नज़र वालों को, नीम दिखता था खड़ा। नीम बड़ा होते ही, करीर लगने लगा जंजाल। कल तक थे निछावर सब,आज उसका है बेहाल। देख जवानी नीम की, करी आंखों में खटका। मुदित, फुनगित करीर का, कर दिया झ ट-पट झटका। अहमियत बस गई आंसू में, समझा दुनिया का भंवर। चढ़ गया भेंट भलाई की, अलविदा कह गए भ्रमर। समझ नहीं सका दुनिया की, यह रीत बुरी। क्यों बंटवारे भलाई के, आती है हरदम छुरी,आती है हरदम छुरी।