रंग बसन्ती रंग में,चलती मस्त बयार। रोम-रोम पुलकित करे,जगा नेह मनुहार।। कलियां कोमल खिल उठी,फागुन भीगे रंग। रंग सृजन का भर रही,नव उमंग के संग।। माघ मास आते खिले,गुंजा मंजरी पात। सजी डार अब बैठ कर,छेड़े पिक जज्बात।। टेसू और कनेर अब,फूल रहे दिन रात। करने भू श्रंगार को,फागुन पा सौगात।। महुआ महका फाग में,बासंती के संग। भू आँचल खुशबू भरे,आनन्दी तन अंग।। फागुन आते उड़ रहा,रंग गुलाल अबीर। विरहन सोचे पीव की,दूनी बढ़ती पीर।। संतोषी देवी शाहपुरा जयपुर राजस्थान।