Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक बिसरी डगर, पुराना ज़माना 36800 0 Hindi :: हिंदी
कच्ची मिट्टी, कच्ची चुनाई, घर थे कच्चे। जुड़ाव था मिट्टी से, रिश्ते थे सच्चे। रिश्तों को निभाते नहीं, जीते थे। रिश्ते- रिस, प्यार प्रांजल धागे से सीते थे। प्रेम -नीर से, सींचता था हर। अब, कहां गए वो घर? घर की ममता, पड़ोस के सहन में छलक जाती थी। घर दीवारें, पड़ोस की दीवारों से बतलाती थी। दीपक, पड़ोसी दीपक की, लौ से लौ मिलाता था। चूल्हे की धुंआ देखकर, चूल्हा मुसकराता था। नीता पड़ोसी गीता से, बतला लेती थी झांककर। अब, कहां गए वो घर? चूल्हा तो जलता ही, पड़ोसी की आग से था। दोस्ती का प्रतिपण, एक- दूसरे की पाग से था। राम- राम का रक़बा बड़ा, अभिवादन सुबह- शाम। एक- दूसरे की, छान छाने में आते थे काम। आज, घर से देखते, बुरी नज़र। अब, कहां गए वो घर? आज पड़ोसी की आग से, चूल्हा नहीं जलता है घर। स्वार्थ- पाश में सब जकड़े, हुआ कलुषित भावांतर। ब्रह्माण्ड की खुल जाए, खुलती नहीं मन की गांठ। जीकर भी नहीं जी रहे, ऐसी पड़ी लिप्सा की आंट। विरंग रिश्ते, दर- बदर। अब, कहां गए वो घर?