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बहती नदी

Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक बहती नदी 55423 0 Hindi :: हिंदी

पर्वत से नदी निकलती, लेकर नई उमंग।
कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग।
झर- झर, झर- झर झरने बहते, उसको दे देते आधार।
एक-एक से मिल बन जाती, नहीं मिली जीवन- सी धार।
कहां से आई, कहां है जाना, इससे भी नहीं सरोकार।
निज से भी अनजान, हो धीरे-धीरे शक्ति संचार।
एक साथ झरने मिल जाते, जवानी की बजती है चंग।
कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग।
जवानी के रंग में रंग गई, नदी में आ गया उफान।
सरसर बहती मैदानों में, अपना शौक़त सीना तान।
जो भी आता उसके पथ में, उसे कराती मृत्यु रसपान।
कल तक थी बेजान उसे, आज नहीं उद्गम का ध्यान।
नीर वेग से टूटे किनारे, नदी में मचा उड़दंग।
कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग।
पर्वत से नदी निकलती, लेकर नई उमंग।
कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग।
कई झरनों से नाता टूटा, नए झरने मिले हैं आय।
कई तो उसके साथ बहे, कई  उसे दिए छिटकाय।
एक झिरी में गंदा नीर, अपनी दुर्गंध रहा फैलाया।
बहने वाले संभल के बह, मैं भी बहा नदी प्रेम रमाय।
एक झटके में उतर गया, मेरी जवानी का रंग।
कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग।
लहराता आगे गया, समय दिया उसे खेल खिलाय।
नहीं रही शक्ति बहने की, उद्गम की फिर याद सताय।
समय हाथ से निकल गया, चाहकर भी वह मिल नहीं पाय।
कोसों दूर है सिंधु अभी, वह नीर गया रेणु समाय।
क्या सोचा था, क्या हो गया, निगल गई उसे समय की जंग।
कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग।
पर्वत से नदी निकलती, लेकर नई उमंग।
कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग।

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