Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक आत्म- स्वाभिमान 11136 0 Hindi :: हिंदी
आपसे दूर, चाहे शरीक हूं। मैं जैसा भी हूं, ठीक हूं। छोटा- बड़ा, अच्छा- बुरा जैसा भी हूं। पर मैं, मैं हूं, चाहे कैसा भी हूं। मेरे जैसा, दूसरा हो नहीं सकता। मैं, मैं नहीं, जब कोई मेरा -सा लगता। चाहे मैं नीम, चाहे ईख हूं। मैं जैसा भी हूं, ठीक हूं। तासीर बदलने से, मैं, मैं नहीं। विष, विष, अमृत, अमृत नहीं। इसी संग रहना, इसी संग मरना है। फितरत ही पहचान, अपना गहना है। मैं, मैं हूं, यही मान अभिमान है। यही खुशी का राज, यही पहिचान है। क्यों, दूसरों से तुलना करूं? जीवन को, क्यों दुख से भरूं? अमीरी से दूर, चाहे नज़दीक हूं। मैं जैसा भी हूं, ठीक हूं। आपसे दूर, चाहे शरीक हूं। मैं जैसा भी हूं, ठीक हूं।