Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक मां का पल्लू 43992 0 Hindi :: हिंदी
पल्लू से मां, पसीने को पोंछती। गर्म भाप पल्लू से, जख़मी अक्षि को सेंकती। मां पल्लू से, मुंह करती साफ़। गीला कर सिर पर रखती, जब बढ़ जाता ताप। पल्लू से आंसू पोंछ, पी जाती दुख -दर्द को। पल्लू कमर से बांध, गर्द चटा दे हर मर्द को। पल्लू की चुटकी से, गर्म से गर्म चीज उठ जाती है। पल्लू का साया सिर से उठा, ज़िंदगी लुट जाती है। पल्लू के साए में दूध पी, बच्चा हाथ -पैर चलाता है। यह मुग्ध नज़ारा ही, मां को मां बनाता है। रुपए पैसे की मां, पल्लू में लगाती गांठ। बच्चा रूठने पर ही खुलती, पल्लू रुपयों की आंट। आब -अदब का पल्ला, क़िस्मत चमका देता है। जो ये पल्ला लटक गया, सबको लटका देता है। बच्चे का रक्षा- कवच, शेषनाग की शय्या। पकड़कर पल्लू, सुर, नर, मुनि पार करते नैया। पल्लू का पलमा बड़ा, जो अदब की ओट। पल्लू की आन, काल भी कर न सके कोई चोट। आब- अदब का पल्ला, जचे चोखा। जो पल्लू बेआब हुआ, तो किसने रोका? चोट छोटी हो, या बड़ी। पल्लू की पट्टी, जादू की छड़ी। पल्लू के साए से बच्चा, धूप -छांव निहारे। स्वर्ग- लोक के सकल देवता, शोभित छवि दुलारे। पल्लू का विकल्प नहीं, कल न आज। हर रूप में पल्लू रहा, सदियों से सरताज।