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महाप्रयाण

Jitendra Sharma 30 Mar 2023 कहानियाँ समाजिक जितेंन्द शर्मा की रचनाएं, रोचक कहानियां, प्यारी कविताएं, 88928 0 Hindi :: हिंदी

कहानी- महाप्रयाण!
रचना- जितेन्द्र शर्मा
तिथी-18/02/2023

पंडित द्वारकानाथ कई दिनों से बीमार थे। उनके बेटों ने उन्हें शहर के सबसे अच्छे डॉक्टर को दिखाया। हर प्रकार का इलाज कराया किंतु कोई लाभ नहीं। पंडित द्वारकानाथ का बड़ा बेटा नीलमणि स्वंय एक बडा डाक्टर था और अब तक चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत ख्याति प्राप्त कर चुका था। छोटा बेटा एक वकील था और शहर के सबसे बड़े वकीलों में गिनती थी। अतः उनके पास न धन की कमी थी ना साधनों की। दोनों बेटे अपने पिता का बड़ा सम्मान करते थे और अपने पिता का जीवन बचाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थे। उन्होंने पंडित जी को शहर के सबसे प्रसिद्ध अस्पताल में भर्ती कराया हुआ था जहां उनका एक हफ्ते से इलाज चल रहा था लेकिन कोई लाभ होता प्रतीत नहीं होता था। पिछले दो दिन से पंडित द्वारका नाथ की स्थिति कुछ अधिक ही गंभीर थी। वह अर्थ चेतन अवस्था में थे। कुछ समय के लिए वे चेतन अवस्था में आते और उनके मुंह से कुछ अस्पष्ट सी आवाज निकलती जिसमें सुनने वालो को बस एक ही बात समझ में आती कि वह अपने गांव के विषय में कुछ कहना चाहते हैं। किंतु शरीर और मस्तिष्क साथ न दे रहा था। 
***

पंडित जी की स्थिति गम्भीर होती जा रही थी। डॉक्टरों ने पुनः पंडित जी की जांच की और उनके दोनों बेटों को बताया कि अब पंडित जी अधिक से अधिक चौबीस घंटे के मेहमान हैं। बार बार उनके मुंह से गांव शब्द निकलता था अतः अनुमान लगाया गया कि संभवत वे अपने गांव लौट जाना चाहते हैं। अतः उचित यही रहेगा कि उन्हें उनके गांव ले जाकर घर पर ही उनकी सेवा की जाए।

दोनों बेटों के सामने बड़ी समस्या थी वह क्या करें?वह निर्णय करने की स्थिति में नहीं थे। मरनासन्न स्थिति में अपने पिता को अस्पताल से घर कैसे ले जायें?लोक लाज का भी ध्यान रखना होता है। लोग कहेंगे कि सब कुछ होते हुए भी दोनों बेटे बीमार बाप को चार दिन अस्पताल में न रख पाये। किंतु पंडित जी के दोनों बेटे समझदार थे। वे जानते थे कि उनके पिता को अपने गांव से कुछ अधिक ही प्रेम है, वे चाहेंगे कि अपने अंतिम समय में वह अपने गांव में ही रहें। अपनी माता से सहमति पाकर उन्होंने अपने पिता को गांव ले जाना ही उचित समझा।
अंततः वे पंडित जी को घर ले आये। 
जैसे ही पण्डित जी घर पहुंचे, लगा कि पूरा गांव उनके घर की ओर उमड़ आया। घर के बड़े से आंगन में चारपाइयां व कुर्सियां डाल दी गई। लोग आते और पंडित जी के दर्शन करते तथा घण्टो तक बतलाते रहते। सब जान चुके थे कि पंडित जी कछ घण्टों के मेहमान हैं।

गांव की अपनी एक विशेष संस्कृति होती है, मित्र हों या विरोधी, विपदा और उत्सव में एक साथ होते हैं। 
चौबीस घण्टे कब व्यतीत हो गये पता ही न लगा। पंडित जी अभी भी जीवित थे और  अनेक बार होश में आकर वही अस्पष्ट शब्दों का उच्चारण कर चुके थे। हर बार उनके मुंह से वही शब्द, "गांव" या "मेरा गांव" जैसा कुछ शब्द निकलते जिसका आशय कोई न समझ पा रहा था।
***
इस स्थिती में ही तीन दिन और बीत गये। पंडित जी न तो स्वास्थ्य लाभ कर पा रहे थे और न ही इस अंसार संसार को त्याग उच्च लोक गमन कर पा रहे थे। गांव वासियों का आवागमन अभी भी पहले दिन की तरह ही था।
पंडित द्वारकानाथ के दोनों बेटे गांव वासियों का अपने पिता के प्रति सम्मान व प्रेम देखकर चकित थे। क्योंकि दोनों ही अपनी शिक्षा पूर्ण कर अपने व्यवसाय में लग गये थे तथा विवाह के बाद शहर में ही बस गये थे। गांव में उनके माता पिता ही रहते थे। पंडित जी गांव के बड़े किसान थे तथा श्रमिकों की सहायता से खेती कराते थे। दोनों बेटों का या उनके पत्नी और बच्चों का गांव में आना जाना कम और कुछ ही समय के लिये होता था।

अब जब वे पिता के कारण कई दिन से गांव में थे तो उन्हें गांव वालों ने उनके पिता के बारे में वे बहुत सी बातें बताई जिनसे वे अभी तक अनभिज्ञ थे। गांव वालों ने बताया कि पंडित द्वारकानाथ बहुत ही सहृदय व्यक्ति थे। वह गांव में सभी के सुख दुख में भागीदार होते। यथायोग्य सबकी सहायता करते। उनका मानना था कि कष्ट के समय  मानव की सेवा ही ईश्वर की सबसे बडी भक्ती है और अपने इस विचार पर अडिग रहते। 
सभी ग्रामवासी भी पंडित जी का बड़ा सम्मान करते थे। गांव में विवाद किसी के भी बीच हो पंडित जी उस विवाद को कुछ ही समय में सुलझा लेते। गांव वालों के लिये पंडित जी का कथन देव वाक्य की तरह होता जिसे बिना किसी तर्क वितर्क के स्वीकार कर लेते। सभी जाति धर्म के लोगों के बीच पंडित जी समान रूप से स्वीकार्य थे तथा पंडित जी भी सभी की सहायता के लिये समान रूप से तत्पर रहते थे। 

दोनों बेटों के आत्मनिर्भर होने के बाद तो एक तरह से पंडित जी ने अपने आप को पूरी तरह गांव के लिए समर्पित कर दिया था। कृषि से अर्जित आय का अधिकतर भाग गांव के गरीबों की सेवा में व्यय होता था। जो भी व्यक्ति उनके पास किसी आशा से आता उसे पंडित जी निराश ना होने देते। उनकी सेवा और त्याग ने उन्हें गांव में सबसे प्रिय और सम्मानित व्यक्ति बना दिया था। अब अंत: समय वे पंडित जी को कैसे अकेला छोड़ दें। एक प्रकार से पूरा गांव शौकाकुल था।
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जब कोई घटना आशा के विपरीत होती है तो मानव सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाता है। चिकित्सकों ने पंडित द्वारकानाथ के लिए कहा था कि उनका जीवन अब अधिकतम चौबीस घंटे के लिए है किंतु पांच दिन हो गए थे। पंडित जी अभी भी उसी स्थिति में थे। उनका परिवार व अन्य स्नेहीजन चिंतित थे कि पंडित जी की आत्मा उनके जर्जर शरीर को त्यागकर स्वलोक गमन क्यों नहीं कर पा रही है। गांव वाले चर्चा कर रहे थे कि निश्चय ही पंडित जी की आत्मा संसार की मोह माया में अटकी हुई है। इस स्थिति में उनको पंडित जी का कष्ट देखा नहीं जा रहा था। अनेक बात हो रही थी। किसी ने परामर्श दिया कि इन्हें गीता के अध्याय सुनाए जाएं तो शायद यह शरीर त्याग देंगे। वैसा ही किया गया। गांव के कुछ पढ़ें लिखे बच्चों ने पंडित जी की चारपाई के पास बैठकर गीता का पाठ शुरू किया। अनवरत पाठ चलता रहा इस प्रकार पांच बार पंडित जी के पास गीता का पाठ हुआ, लेकिन कोई लाभ नहीं। विद्वानों और वयोवृद्ध लोगों की सलाह पर अनेक प्रकार के दान किए गए। देवी के मंदिर में सोने का छत्र चढ़ाया गया, बहुत सा अनाज का गरीबो में बांटा गया। पंडितों की सलाह पर गाय दान की गई। किंतु सभी कुछ व्यर्थ गया। अब उनके परिवार के साथ साथ पूरा गांव चिंतित था कि पंडित जी के प्राण कहां अटके हैं। अनेक प्रकार के टोने टोटके आजमाए गए किन्तु सब कुछ व्यर्थ। 
***
लाला रामकिशोर पंडित जी के बचपन के मित्र थे। उनकी गांव में ही किराने की दुकान थी। किंतु दस वर्ष पूर्व पास के शहर में उनके बेटों ने एक बड़ी सी दुकान खोल ली थी और वहीं बस गए थे। न चाहते हुए भी लाला रामकिशोर को गांव छोड़ना पड़ा। किन्तु पंडित जी संग उनकी मित्रता पूर्ववत रही। दोनों का एक दूसरे के पास आना जाना बना रहा।
लाला को पंडित जी की बीमारी का पता देर से लगा । दोनों के बीच घनिष्ठ मित्रता थी। मित्र की दशा के विषय में सुनकर वह तत्काल गांव आ पहुंचे। वह अपने मित्र की देखकर वह बहुत पीड़ित हुए। 
दोनों ने साथ-साथ अपना अच्छा बुरा समय व्यतीत किया था। वह पंडित जी के पास ही बैठकर आपने मरणासन्न मित्र को निहारते रहे। कुछ समय बाद पूर्व की तरह पंडित जी अर्धचेतन अवस्था में आए और जैसे ही लाला राम किशोर ने उन्हें पुकारा तो उनकी आंखों में आसूं भर आये। संभवत उन्होंने अपने मित्र की आवाज को पहचान लिया था। अब पुनः उनके मुंह से वही अस्पष्ट शब्द निकलने लगे। जैसे कि अपने मित्र को कुछ बताना चाहते हों। 
लाला राम किशोर ने उन शब्दों को ध्यान से सुना और और पंडित द्वारकानाथ के कान के समीप मुंह लाकर बोले -"सुनो पंडित! मैं जानता हूं कि तुम्हें अपने गांव की चिंता है। इसी कारण तुम प्राण नहीं त्याग पा रहे हो। पर मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि तुम्हारे बच्चे गांव को तुम्हारी ही तरह प्यार करते हैं, वह निश्चय ही तुम्हारे काम को आगे बढ़ाएंगे। गांव सुरक्षित हाथों में है। अब तुम अपने गांव की चिंता त्याग कर अपना ध्यान भगवान के श्रीचरणों में लगाओ।"
लाला राम किशोर की बातों ने जादू का काम किया। पंडित जी की आंखों में हल्की चमक आई। उनके होठों पर कष्ट का स्थान हल्की मुस्कुराहट ने ले लिया। कुछ समय तक उन्होंने लाला राम किशोर की और निहारा तथा फिर अपना हाथ उठाने की कोशिश की, लाला राम किशोर उनका मंतव्य जान गए थे अतः उन्होंने पंडित जी का हाथ थाम लिया। उनके दोनों बेटे इस कोतुक को आश्चर्य से देख रहे थे। पंडित जी ने गर्व के साथ अपने बेटों की ओर देखा फिर आंखें बंद कर ली। कुछ ही क्षण में वह इस असार संसार को त्याग चुके थे। मृत्यु से पूर्व उनके चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे जो उनके निस्तेज चेहरे पर स्थाई हो गये थे।

अपने गांव के प्रति पंडित द्वारकानाथ कि निष्ठा, प्रेम तथा सेवा की भावना को देखकर सारा गांव चकित था। वह मन ही मन पंडित द्वारकानाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रणाम कर रहे थे। दोनों बेटे कुछ गांव वालों के साथ उनकी अंतिम क्रिया की व्यवस्था करने में जुटे हुए थे।

अधिकतर लोग आंखों में आंसू लिये उस महामानव के सत्कार्यों की चर्चा कर रहे थे जो अब महाप्रयाण के लिये निकल पड़ा था।
*** 
सम्पन्न।

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