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कल्लो का स्कूल!

Jitendra Sharma 30 Mar 2023 कहानियाँ समाजिक कल्लो का स्कूल, जितेन्द्र शर्मा, कहानी 87778 0 Hindi :: हिंदी

कहानी- कल्लो का स्कूल"
लेखक_ जितेन्द्र शर्मा
तिथी_05/01/2023

***
"सुनो प्रमिला! तुम्हारी बेटी का फोन है।" विक्रम नारायण ने ऊंची आवाज में कहा ताकि रसोई घर में काम कर रही उसकी पत्नि सुन सके।
"आ रही हूं जी! गैस पर चाय रखी है, पहले तुम बात कर लो, फिर मैं खुद बात कर लूंगी। वैसे भी तुम मुझे कहां बात करने देते हो बीच-बीच में! ------ फोन छीन कर बेटी से खुद बतियाने लगते हो।" प्रमिला ने रसोई घर से ही ऊंची आवाज में उत्तर दिया।
विक्रम नारायण कुछ देर तक फोन पर बात करते रहे और फिर फोन रख कर अपनी पत्नी की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ देर बाद उनकी पत्नी प्रमिला ने उनके कमरे में प्रवेश किया और चाय की प्याली रखते हुए पूछा - "क्या कह रही थी कल्लो?"
"उसने सरकारी सेवा से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है और अपने गांव जा रही है।"
"यह तो हमें पहले से ही मालूम था कि वह ऐसा ही करेगी। मगर दामाद जी! क्या उन्होंने भी कुछ नहीं कहा?" प्रमिला ने आश्चर्य व्यक्त किया।
विक्रम नारायण मुस्कुराए और बोले- "तुम तो जानती ही हो प्रमिला, दामाद जी एक प्रतिष्ठित कॉलेज में प्रोफेसर हैं और वह बहुत सज्जन व्यक्ति हैं। कल्लो की हर इच्छा का सम्मान करते हैं । उन्होंने तो मना करने के बजाए कल्लो को खुद प्रोत्साहित किया है, और उनके इस निर्णय में कल्लो के दोनों बच्चे भी साथ हैं।"
प्रमिला ने संतोष व्यक्त करते हुए कहा-"हमारी कल्लो बड़ी भाग्यशाली है जी, जो उसे इतना अच्छा परिवार मिला।"
"भाग्यशाली तो हम भी हैं प्रमिला जो भगवान ने हमें इतनी सम्मान करने वाली बेटी दे दी।" विक्रम नारायण धीमे से बोले और पुरानी यादों में खो गए।
***
वह छब्बीस साल के नवयुवक थे जब उनकी प्रथम नियुक्ति सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी पद पर हुई। पढ़ने पढ़ाने में रुचि के चलते ही उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में जाने का निर्णय लिया था। वह शिक्षा की दुर्दशा थे से अत्यंत खिन्न थे। अब जब उन्हें ईश्वर ने अवसर दिया था तो वह इसे खोना नहीं चाहते थे। काम बहुत करना था, फिर नया जोश था, अतः कमर कसकर समर में उतर गए। 
उन्होंने सरकारी पाठशालाओं का भौतिक निरीक्षण शुरू किया। शिक्षण समय से पूर्व ही वह किसी पाठशाला में पहुंचकर वहां की सारी गतिविधियों को ध्यान पूर्वक देखते और जहां जैसी आवश्यकता होती वैसे निर्देश देते। जिस विद्यालय में कार्य ठीक मिलता वहां के शिक्षकों की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर उन्हें प्रोत्साहित करते। बच्चों से बात करते, उनकी समस्याओं को सुनते समझते और यथा संभव उन्हें दूर करने में अध्यापकों की सहायता करते। उनकी सजगता और कार्यप्रणाली ने उन्हें शीघ्र ही पूरे कार्यक्षेत्र में प्रसिद्ध कर दिया।
उनके कार्यक्षेत्र में कुछ ऐसे गांव भी थे जो दुर्गम होने के कारण विकास योजनाओं से तो वंचित थे, साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी वहां बहुत बदहाली थी। ऐसे ही एक गांव में एक दिन वह भौतिक सत्यापन के लिए निकले। इस गांव में कक्षा पाँच तक का सरकारी स्कूल तो बन गया था और दो अध्यापकों की नियुक्ति भी वहां थी किंतु स्कूल की अच्छी रिपोर्ट न मिल रही थी। अतः उन्होंने वहां स्वयं जाकर देखने का निर्णय किया। जब वह विद्यालय में पहुंचे तो उस समय स्कूल में शिक्षण गतिविधियां शुरू हो चुकी थी। लगभग तीस बच्चे चार पंक्तियों में जूट के फर्श पर बैठे हुए थे, जोकि एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे स्वच्छ स्थान पर बिछे हुए थे। उनके बीच एक लगभग दस वर्ष की बच्ची घूमती हुई कुछ बोल रही थी और सभी बच्चे बड़े मनोयोग से अपनी-अपनी नोट्सबुक पर कुछ लिख रहे थे। विद्यालय में दो छोटे कमरे और एक बरामदा था। किंतु बरामदे में कोई नहीं था और दोनों कमरे भी अभी तक बंद थे। कोई शिक्षक भी स्कूल में दिखाई नहीं पड़ रहा था।
***
विक्रम नारायण आश्चर्यचकित थे। अध्यापक संभवत कहीं गए हों, यह विचार करके आगे बढ़े और बच्चों के निकट पहुंच गए। बच्चों ने पल भर उनकी ओर देखा और पुनः अपने कार्य में व्यस्त हो गए। विक्रम नारायण की दृष्टि उस बालिका की ओर गई जो बच्चों के बीच घूम घूम कर कुछ बोल रही थी। वह बच्ची भी कुछ पल के लिए ठिटकी व कुतूहल वश विक्रम नारायण की ओर देखने लगी। बच्ची सम्भवतः नौ या दस वर्ष की रही होगी। रंग सांवला, लंबी नाक, बड़ी बड़ी आंखें।  चेहरे का प्रत्येक अंग जैसे कुछ कहना चाहता हो। सांवला रंग और इतना सोंन्दर्य। मानो खुद भगवान श्री कृष्ण ने बालिका का रूप धारण कर लिया हो। वह हतप्रभ रह गये। बालिका उनके निकट आई और मुस्कुरा कर बोली "आप नये मास्टर जी है ना।"
विक्रम नारायण की तंद्रा भंग हुई। वह तपाक से बोले "नहीं!" 
"फिर आप कौन हैं? और हमारे स्कूल में क्यों आए हैं? लड़की ने पुनः पूछा। 
"बताऊंगा बेटा! पहले आप अपना नाम बताओ!" विक्रम नारायण ने कहा। 
"कल्लो!" वह मुस्कुरा कर बोली। 
"क्या कल्लो?" विक्रम नारायण भी मुस्कुराए और पुनः पूछा "क्या यही आपका असली नाम है?"
"स्कूल में तो मेरा नाम श्यामा है, पर मुझे अपना नाम कल्लो ही अच्छा लगता है।" 
"क्यो?"
"मेरे बाबा मुझे कल्लो कहते हैं ना।" 
विक्रम नारायण को बच्ची की बाल शुलभ बातों में आनंद आने लगा। सभी बच्चे बड़ी शांति के साथ उन दोनों की वार्ता सुन रहे थे। "और आपकी मां?" उन्होंने पूछा!
"मेरी मां नहीं है! बाबा कहते हैं कि मेरी मां बहुत अच्छी थी! पर वह मुझे तीन वर्ष की उम्र में ही छोड़कर भगवान के पास चली गई!"
"और भाई बहन?"
"नहीं है! बस मैं और मेरे बाबा ही हैं!" कल्लो ने उदास स्वर में कहा।
"आपके बाबा काम क्या करते हैं?"
"अपने खेतों पर काम करते हैं। हमारे पास बहुत से खेत हैं। और हां! मेरे बाबा गांव के मुखिया भी हैं।" कल्लो ने गर्व के साथ सिर ऊपर उठाकर बोला।
"कौन सी कक्षा में पढ़ती हो?"
"पांचवी में।"
"तुम बच्चों को क्या पढ़ा रही थी?"
"मै बच्चों को इमला लिखवा रही थी। हमारे बड़े मास्टर जी कहते हैं कि मैं पढ़ने में बहुत अच्छी हूं। इस लिये उन्होंने मुझे मोनिटर बना दिया है। हमारे मास्टर जी को आने में देर हो जाती है ना, उनके आने तक मैं ही सब बच्चों को पढ़ाती हूं। इमला बोलती हूं गिनती सुनती हूं, पहाड़े भी सुनती हूं।" कल्लो ने बड़े गर्व के साथ बताया।
विक्रम नारायण को बच्ची की बातों में बड़ा आनंद आ रहा था उन्होंने पूछा- "क्या आपके मास्टर जी रोजाना देर से आते हैं?"
"हां जी! दोनों मास्टर जी देर से आते हैं और कभी-कभी तो एक मास्टर जी आते हैं, कभी दोनों भी नहीं आते! वह बहुत दूर गांव में रहते हैं ना, इसलिये आने में देर हो जाती है।" कल्लो ने बेझिझक उत्तर दिया।
"तुम्हें यह सब बातें कौन बताता है बेटा?"विक्रम नारायण ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"हमारे मास्टर जी हमें बहुत अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं। और मेरे बाबा भी।"
"अच्छा कभी किसी ने तुम्हें यह नहीं बताया कि तुम बोलती बहुत ज्यादा हो?" विक्रम नारायण ने हंसते हुए पूछा।
"वो तो मेरे बाबा रोज कहते हैं! और बड़े मास्टर जी भी यही कहते हैं कि मैं ज्यादा बोलती हूं।" कल्लो ने शर्माकर उत्तर दिया।
उन्होंने दूसरे बच्चों से भी बात की तथा कुछ देर उन्हें पढ़ाया भी। कब समय व्यतीत हो गया इसका उनको भान न था। दोनों अध्यापक तब तक आ चुके थे किन्तु उन्होने उन्हे   कुछ देर अलग बैठ कर इंतजार करने के लिये कहा और वह घंटों तक बच्चों को पढ़ाते रहे। अंत में लापरवाही के लिए दोनों अध्यापकों को  चेतावनी देकर वापस लौट आए। उसके बाद वे कई बार उस विद्यालय में गए और कल्लो के पिता से भी मिले। वह बहुत अच्छे व्यक्ति थे और चाहते थे कि उनके गांव में शिक्षा की उत्तम व्यवस्था हो। दोनों के संयुक्त प्रयास से उसी वर्ष कल्लो का स्कूल कक्षा आठ तक हो गया। उसके अगले वर्ष विक्रम नारायण का वहां से स्थानांतरण हो गया।
***
बीस वर्ष व्यतीत हो गए। विक्रम नारायण अब उन्नति पाकर जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी बन चुके थे और औरैया जनपद में पदस्थ थे। यहां पर वह दो वर्ष से जमे हुए थे और अपनी पत्नी प्रमिला के साथ में सरकारी आवास में रहते थे। भगवान ने संतान के नाम पर उन्हें एक बेटा दिया था जो पढ़ लिखकर अमेरिका में बहुत अच्छी नौकरी कर रहा था और वही बस जाने की इच्छा रखता था। एक दिन वह अपने कार्यालय में थे, सूचना मिली कि  साँय चार बजे जिलाधिकारी कार्यालय में मीटिंग है जिसमें उन्हें सम्मिलित होना है। दो दिन पूर्व उनके जनपद में किसी महिला अधिकारी का स्थानांतरण हुआ था । किसी ने बताया था कि न्ई जिला अधिकारी कोई 28 या 30 वर्ष की बड़ी तेजतर्रार महिला है किंतु उसे अभी देखा नहीं था।
मीटिंग के समय जब उन्होंने जिलाधिकारी को पहली बार देखा तो लगा कि पहले भी कहीं उन्होंने इनको देखा है। नाम भी  सुना हुआ लगा । अचानक 20 साल पुरानी बात याद हो गई कहीं यह कल्लो तो नहीं। लेकिन पूछे कैसे? उनकी आशंका सत्य सिद्ध हुई जब जिलाधिकारी मैडम ने स्वयं उनके पास आकर कहा कि यदि वह व्यस्त न हो तो जाने से पहले उनके कक्ष में आकर मिल लें।
जब विक्रम नारायण जिलाधिकारी के कक्ष में पहुंचे तो अपने सम्मान में जिलाधिकारी को खड़े पाकर भाव विव्हल हो गये। पूछना चाहते थे कि वह  कल्लो ही है ना! किन्तु पद की मर्यादा ने उनका रास्ता रोक लिया। जिलाधीकारी जो कि कल्लो ही थी, उनकी दुविधा को समझ गई और  मुस्कुरा कर पूछा "पहचाना सर?"
विक्रम नारायण का संकोच दूर हुआ। वह मुस्कुरा कर बोले- "श्यामा जी"।
वह सब तो दूसरों के लिए है आप तो मेरे पिता तुल्य हैं। मैं आज भी आपकी वही कल्लो हूं। आप तो जानते हैं, मेरे बाबा मुझे इसी नाम से पुकारते थे। आप मेरे गुरू की तरह सम्माननीय हैं, मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप कल्लो कहेगे तो अच्छा लगेगा।
"ठीक है बेटा! किंतु आप मेरी सीनियर अधिकारी हैं, तो मुझे नियम का पालन तो करना होगा। घर पर आप मेरे लिये वही कल्लो है। नन्ही सी, प्यारी सी और ज्यादा बोलने वाली। लेकिन आप तो अध्यापिका बनना चाहती थी फिर सिविल सेवा में कैसे?" 
"आप ठीक कहते हैं सर मैं अध्यापिका बनना चाहती थी। और मेरे पिता की भी इच्छा यही थी कि मैं अध्यापिका बनूं, और अपने गांव में बहुत बड़ा स्कूल बनाऊं जहां गांव की बेटियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें। किन्तु गांव से कक्षा आठ उत्तीर्ण करने के बाद मेरे पिता ने मुझे शहर के कॉलेज में प्रवेश दिला दिया था, वहां इंटर करने के बाद शहर में ही रह कर उच्च शिक्षा प्राप्त की और साथी मित्रों के कहने से सिविल सर्विस की परीक्षा दी और प्रथम प्रयास में ही उत्तीर्ण कर लिया। शायद ईश्वर को यही मंजूर था किंतु आज भी मेरा मन चाहता है कि मैं अध्यापिका बनु और भगवान ने चाहा तो मेरी यही इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" कल्लो ने इस पद तक पहुंचने की सारी कहानी बताई। 
दोनों कुछ समय तक पुरानी बातों में खोये रहे। उसके बाद विक्रम नारायण पुनः मिलने को कहकर घर चले गए।
रास्ते में वह सोच रहे थे- "इतना मान! इतना मान तो अपनी सगी संतान नहीं देती! हां बेटी ही होती है जो ये सब कर सकती है।" वह घर पहुंचे और सारी बात अपनी पत्नी को बताई। इस प्रकार दोनों घरों में आना-जाना शुरू हुआ। अब कल्लो उनके लिए बेटी बन गई थी। सगी बेटी से भी कुछ अधिक! कल्लो प्रमिला को अपनी मां की तरह मानने लगी थी। नारी का यह गुण अलौकिक है, वह जिसकी हो जाती है तो बस हो जाती है।
प्रमिला को तो  कल्लो को बेटी के रूप में पाकर न जाने क्या अमूल्य खजाना मिल गया था। कल्लो ने उनके जीवन का वह रिक्त स्थान भर दिया था जो उनके बेटे के अमेरिका में बस जाने से रिक्त हुआ था। अब कल्लो उनके लिए सगे बेटे से भी ज्यादा प्रिय थी। और कल्लो के लिए भी प्रमिला मां थी। बस मां!
***
इस प्रकार विक्रम नारायण और कल्लो के बीच पिता पुत्री का रिश्ता बन गया जो अभी तक अनवरत चल रहा था। एक बात वह सदैव कहती कि उनके पिता की एक ही इच्छा थी कि उनके गांव में उच्च शिक्षा के स्तर तक एक विद्यालय होना चाहिए जिसमें गांव की बेटियां शिक्षा ग्रहण कर कल्लो की तरह गांव का नाम रोशन कर सकें। उसके पिता बड़े किसान थे इसलिए अपनी बेटी को शिक्षा के लिए शहर भेज सकें। गांव में सब की इतनी हैसियत कहां? यदि गांव में उच्च शिक्षा प्राप्त हो सकेगी तो गांव की बेटी अपनी योग्यता के अनुसार प्रगति कर सकेंगी। कल्लो ने बताया कि उसने अपने पिता की जमीन पर एक इंटर कॉलेज बनवा दिया है तथा अपने पिता की सारी संपत्ति कॉलेज को दान कर दी है। अब वह डिग्री कॉलेज के लिए प्रयासरत है। जैसे ही उसका प्रयास सफल हुआ वह सरकारी नौकरी छोड़ कर उस कॉलेज का प्रबंधन करेगी और उसके साथ ही अध्यापक बनने की भी जो बचपन से इच्छा है उसे पूरा कर सकेगी। वह प्रतिष्ठित पद पर थी लेकिन बचपन से ही अपनी मातृभूमि की सेवा करते हुए अपने पिता की इच्छा को पूरा करना उसका लक्ष्य था। अब वह अपने पिता की इच्छा पूरी कर पाई थी। महाविद्यालय बन चुका था। अतः उसने नौकरी छोड़ दी थी।

विक्रम नारायण सेवानिवृत्त हो चुके थे और अपनी पत्नी के साथ शहर में ही मकान लेकर बस गए थे।उसके बाद कल्लो ने पंद्रह वर्ष तक सरकारी नौकरी की तथा अलग-अलग जनपदों में उसका स्थानांतरण होता रहा। किंतु वह सदैव विक्रम नारायण और उनकी पत्नी के संपर्क में रही।जैसे ही समय मिलता है वह उनके पास आ जाती। अनेक बार वह अपने पति और बच्चों के साथ भी विक्रम नारायण के पास आई। कल्लो के पति दुष्यंत भी उन्हें वैसा ही सम्मान देते थे। उनके दोनों बच्चे रश्मि व अनुज तो विक्रम नारायण और उनकी  पत्नी को नाना नानी के रूप में पाकर गदगद थे।
महाविद्यालय में ही कल्लो के स्वागत का कार्यक्रम रखा गया था। कल्लो ने उन्हे इस कार्यक्रम में बुलाने के लिए ही फोन किया था। विक्रम नारायण बहुत पहले ही सेवानिवृत्त हो गए थे। उनका बेटा अपने परिवार के साथ अमेरिका में सेटल हो गया था। वह अपने माता-पिता को भी अमेरिका बुलाना चाहता था किंतु वे अंतिम सांस अपनी मातृभूमि पर ही लेना चाहते थे। और अब तो उनकी एक बेटी भी थी और उसका भरा पूरा परिवार भी। 
***
विक्रम नारायण पुरानी यादों के भवर से बाहर आए  और अपनी पत्नी को फोन देते हुये कहा- " हम भी अब बेटी के पास ही रहेंगे! तुमने खुद कल्लो को वचन दिया था, कि जब वह नौकरी छोड़कर स्कूल संभाल लेगी तो हम भी उसके गाव मे रहकर बेटी के कार्य में सहयोग करके पुन्य में भागीदार बनेंगे। कल्लो से बात कर लो और बेटी के पास चलने के लिए सामान पैक कर लो।"
"आप ठीक कहते हैं जी मैं सामान पैक करती हूं आप बेटे को फोन कर देना कि वह जब हमसे मिलने आए तो अपनी बहन के गांव में आए। अब हम सदा वही रहेंगे अपनी बेटी के साथ।"
विक्रम नारायण पत्नि सहित गांव पहुंचे तो पाया कि विद्यालय का एक विशाल भवन बना हुआ है जिसके द्वारा पर विद्यालय के नाम का साइन बोर्ड लगा है। द्वार के निकट ही दीवार पर किसी ने लिख दिया था-
" कल्लो का स्कूल।"
वह इस सत्य को पढ़कर मुस्कराये बिना न रह सके।
***
"सम्पूर्ण "

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