Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक पिता 94315 0 Hindi :: हिंदी
मज़बूत कंधों पर बिठा, आंगन में घुमाते। कभी-कभी तो मेरे लिए , मेरे जैसा बन जाते। गिरने पर, शाबाश, शेर बेटा कहते। लड़खड़ाते पांव, बांहों में ही संभलते। खुद ही बनाते, पितृ-संहिता। ऐसे होते, हैं पिता। उंगली पकड़ने का एहसास, जब खेत बीच ले जाते। कौआ है, पूछने पर बार-बार समझाते। खुद की दबाके इच्छा, मेरे पूरे करते शोक़। मैं ही इनका सर्वस्व, मैं ही जीवन का चौक। निज, अरमानों की चिता। ऐसे होते, हैं पिता। मैं ही था इनके,अरमान, इच्छा, उसूल। खुद नंगे पांव, मुझे नये जूते, कैसे जाऊं भूल। कहां जा रहे? कब आओगे? प्रश्नों की झड़ी लगाते। सब जानते हुए भी, मेरे मिथ्या जवाब मान जाते। ऊपर डांट, अंदर प्रेम-सरिता। ऐसे होते, हैं पिता। चाहता था आजादी, मिली वो, पर चिंतिंत हूं क्या करूं करता हूं महसूस आज, हो कोई जिससे मैं डरूं। आज सब कुछ मेरे पास, पर नहीं हैं आप। समझ गया सब कुछ आज, क्यों कि मैं भी हूं एक बाप। आज मैं मेरे बच्चे, मेरी वनिता। ऐसे होते, हैं पिता। होने पर बीमार मैं, अटक जाता था कौर। दिखने वाले मज़बूत कितने, अंदर से कमज़ोर। संतान बाप की दुखती रग, जीवन सांसों की डोर। सारी दुनिया एक तरफ, बेटा-बेटी एक ओर। संतान हरा दे, दे संतान जिता। ऐसे होते, हैं पिता।