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लघुकथा- घर की आश

virendra kumar dewangan 30 Mar 2023 कहानियाँ अन्य Short Story 33854 0 Hindi :: हिंदी

जब संजीव को कार्यालय सहायक की नौकरी मिली, तब उसे लगने लगा कि शहर में अब एक अदद घर की मुराद पूरी हो सकती है। वह घर बनाने के लिए जमीन खरीदने की चेष्टा करने लगा। 
काफी खोजबीन के बाद उसको हकीकत से दो-चार होना पड़ा कि जमीन की कीमत इतनी अधिक है और उसकी तनख्वाह इतनी कम कि वह जमीन खरीदना तो दूर, उसके बारे में सोच भी नहीं सकता है।
वह दलालों से बात किया। दलाल शहर के एक कोने में 1000 वर्गफीट का दाम 15 लाख रुपये से अधिक बता रहे थे। वह भी ऐसे, जैसे यह लागत न्यूनतम हो और इसे लेनेवाले हददर्जे के इंसान हो। 
शहर के मध्य या पाश कालोनी में वे लाखों रुपया वर्गफीट बता रहे थे, गोया इसको लेने के लिए धनकुबेरों की लाइन लगी हो। इससे संजीव को लग रहा था कि ऐसा छलावा उसके साथ जान-बूझकर किया जा रहा है, ताकि संजीव जैसे मध्यमवर्गीय लोगों के लिए घर का सपना, सपना ही रह जाए। 
‘‘उफ! ऐसी महंगाई! आसमान छूते भाव! ऐसे में मध्यमवर्गीय घर कहां से ले पाए?’’ वह मारे चिंता के सिर पकड़ लिया। उसकी मुखमुद्रा कसेली हो गई।
उसका मासिक वेतन 25 हजार रुपया मात्र था। इसमें 5 हजार रुपया किराया, 10 हजार रुपया खाना-पीना, 5 हजार रुपया माता-पिता और शेष कामवाली बाई, बिजली, दवा-दारू, नल व किताब-कापी में ऐसे खप जाता था, जैसे भूखे गिद्दों के सामने परोसा गया मांस सफाचट हो जाता है।
उसे लगने लगा कि सूरसा के मुंह की तरह बढ़ते शहर में एक प्लाट खरीदना, फिर उसमें मकान बनाना, उसके लिए तो नामुमकिन-सा है। लेकिन, जब महंगाई कम थी, लोग कम थे, शहर भी छोटा था, तब बाबा ने जमीन क्यों नहीं लिया? 
उन्होंने इस बात का अनुमान क्यों नहीं लगाया कि महंगाई जब बढ़ जाएगी, तब उसके बच्चे शहर में कैसे रहेंगे? ऐसा सोचते-सोचते संजीव अतीत के सागर में गोते लगाने लगा।
शहर से बीस किमी दूर बालेंगा में खेती है उनकी। उनके बाबा किसान हैं। बमुश्किल पांच एकड़ जमीन है उनकी। उसके एक भाई और एक बहन है। दोनों बड़े हैं। मां कैंसर से चल बसी है। 
उनके पढ़ने के दरमियान गांव में प्रायमरी स्कूल भी नहीं था, इसलिए दादा व दीदी आगे पढ़ न सके। दादा, बाबा के साथ खेती में हाथ बंटाने लगा, तो बाबा को तसल्ली हुआ कि चलो उसके बाद खेती बड़ा लड़का संभाल लेगा।
बच गया वह। उसे पढ़ा-लिखाकर नौकरी कराना चाहते थे वे। सो, उन्होंने उसके लिए शहर में एक मकान किराये पर लेकर उसे शिफ्ट कर दिया। इस तरह संजीव पढ़-लिखकर कलेक्टेªट में कार्यालय सहायक बन गया।
वे शहर में एक अदद घर के लिए तरस रहे थे। लेकिन, बाबा थे कि अपनी असमर्थता जाहिर कर चुप्पी साध लेते थे। संजीव सोचा करता था कि शहर में अपना घर रहेगा, तो उसे किराए में रहने की नौबत नहीं आएगी। अभी शहर में घर बन भी जाएगा, किंतु जब महंगाई बढ़ेगी, तो बनाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाएगा।
एक दिन संजीव गांव पहुंचा और अपने बाबा से बोला,‘‘बाबा, शहर में सबका अपना घर है। सब अपने-अपने घरों में मजे से रहते हैं, परंतु शहर में हमारा कोई ठिकाना नहीं है।’’
बाबा उसकी बात सूने और शून्य की ओर निहारने लगे,‘‘कैसे बनाऊं घर? इस साल भी बाढ़ के कारण खेत में घाटा हो गया। जो कुछ धान बचा है, वह केवल खाने के लायक है। फिर इस वर्ष तुम्हारी दीदी के हाथ भी पीले करने हैं। उसके लिए हमें साहूकार से उधारी लेनी पड़ सकती है।’’
‘‘मैं आज की बात नहीं कर रहा हूं बाबा। आज से पच्चीस-तीस साल पहले की बात कर रहा हूं। जब जमीन सस्ती थी, तब आपने जमीन खरीदकर क्यों नहीं रख ली?’’
‘‘कहां से लेता बेटा? तब हालत और भी खराब थी। तुम्हारी मां तुम्हें जन्म देने के बाद बिस्तर से उठ न सकी। तुम तीनों भाई-बहनों को बढ़ा करने में मेरी उम्र बीत गई। जब खेती का खास-खास वक्त आता था, तब-तब तुम्हारी मां को अस्पताल में भर्ती करना पड़ता था। मजदूरों के भरोसे खेती कहां से होती, इसलिए हर साल घाटा होता चला गया। ऊपर से बाढ़ का प्रकोप रही-सही फसल को तहस-नहस कर देता था।’’
‘‘ओह!’’ संजीव के मुख से आह निकला। 
अब, उसे समझ में आने लगा कि उसके बाबा गृहस्थी और खेती के चक्रव्यूह में इस कदर उलझे थे कि जमीन का टुकड़ा खरीदना, उनके लिए दूर की कौड़ी ही थी? 
बाबा ने आगे कहा,‘‘जब से तुम्हारा दादा खेती में जुटा है, तब से खेती ठीकठाक हो रही है। पहले तो फसल इतना भी नहीं होता था। हमारे ऊपर अभी तक साहूकार का कर्ज है। वह डेढ़ही लेता है। डेढ़ही मतलब-डेढ़ गुना। जो धान वो देता है, उसको एक साल के भीतर चुकाना पड़ता है। पहले उसको चुकता करते हंै, फिर आगे की सोचते हैं। नहीं तो, यही डेढ़ही डबल हो जाया करता है। तब तक तू भी कुछ-कुछ जमा करते जा बेटा, ताकि शहर में घर का सपना सब मिल-जुलकर पूरा कर सकें।’’
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