Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक जीवन उलझन 15647 0 Hindi :: हिंदी
दिमाग़ ही लगाते रहोगे, तो जीवन कब जीओगे? अच्छा हो गया, तो कैसे हुआ सोचते हो। बुरा हुआ तो, ईश्वर को कोसते हो। वक़्त ठीक हो, तो और ज़्यादा भोंकते हो। यदि वक़्त बुरा हो, तो वक़्त को नोचते हो। तर्क को कुतर्क बनाते रहोगे, तो जीवन कब जीओगे? सीधी बात को, बना देते हो पेचदार। चूड़ी पर चूड़ी चढ़ाकर, चूड़ी को देते हो मार। सीधी रही न टेढ़ी, अलग ही बना दिया आकार। गोल-गोल घूम गई, पता न चली बात की धार। हर बात को, गोल-गोल घुमा दोगे, तो जीवन कब जीओगे? दिमाग़ को देकर देखो, सीधा सोचने की सज़ा। उसी वक़्त शुरु होगा, जीवन जीने का असली मज़ा। जीवन भी तुझसे पूछेगा, बता तेरी क्या है रज़ा? पाकिज़ा सीधी सोच से, मिलेगी जीने की असली वज़ा। सीधे में भी, टांग अड़ा लोगे, तो जीवन कब जीओगे? हर व्यक्ति निज सोच को, दूसरों पर देता ठोक। दिग्भ्रम जैसे, उसको ही मिली विचारों की कोख। खुद की विद्वत्व पागुर की, चिपका देते हो जैसे जोंक। ऋजु को क्यों बनाते, वक्र की नोक-झोंक। उलझकर एक दिन, खुद ही मरोगे, तो जीवन कब जीओगे? दिमाग़ ही लगाते रहोगे, तो जीवन कब जीओगे? जीवन कब जीओगे?