करते रहे हम शिकवा
करते रहे हम शिकवा,
खुद से ही अपनी लेकिन ।
अफसोस जवाने से दर्द,
हम और छिपा ना पाए ।।
अब तक छिपा रखा था,
जिस दर्द को सीने पे ।
उस दर्द को संजोकर,
हम और रख ना पाए ।।
छलक ही पड़ा वो दर्द,
ऑखो के रास्ते फिर ।
होंठों पे लिए जैसे,
उस दर्द की थी आहें ।।
कोई समझ सका ना
उस दर्द को मेरे ।
सुनकर वो हस रहे थे,
ले मंद -मंद मुस्काने ।।
अपनो के बीच जैसे,
असहाय हो चुका मैं।
बुनते रहे मेरे अपने,
मुझ पर ही ताने बाने।।2।।
🙏धन्यवाद 🙏
संतोष कुमार
बरगोरिया
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(साधारण
जनमानस)