Santoshi devi 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक रात,निशा, रेन 18894 0 Hindi :: हिंदी
भूख में बासा भात , स्वादिष्ट व्यंजन है। वही तृप्ति में बेस्वाद। सवेरे का अनवरत होना, जिंदगी का रुकाव है। दुख में चिंतन का पर्याय, खामोशी है, जिसका कुछ अलग ही अंदाज है। कभी सुकून तो कभी मर्म, कभी सफर तो कभी बसर। तलाशती हुई वक्त को, जाने कितनी पगडंडीयां नाप लेती है। कितनी ही रातों से रूबरू, सवाल पूछती है, मेरे नापे हुए रास्तों में, सवेरा कब होगा । खुद से खुद की झुंझलाहट, प्रकाश पुंज बटोर लेती है, एक राह पाने के लिए। इसलिए निशा का होना लाजिमी है। सवेरा आदमी को मृत बनाता है, भावों का सैलाब ठहर जाता है। अनगिनत इच्छाएं जन्म लेती हैं, अनेक राह इर्द-गिर्द होती हैं। भुला देता है सुख, उस राह को । जिसको खामोशी ने थामें रखा था। पहचान मिटा देता है, अपनेपन की, अहं का मद धीरे-धीरे, अपनेपन को निगल जाता है। उजालों की चकाचौंध अंधा बना देती है। दिखाई देते हुए भी दिखता नहीं। इसलिए निशा का होना लाजमी है। उल्लास सुप्त पड़ता है, बिखराब को समेटना दुष्कर होता है। एक सवेरा, यंत्र बने आदमी की, आदत भुला देता है अंधेरे की। अक्सर उजालों से ही टकराने लगता है। इसलिए निशा का होना लाजिमी है।